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पद्मावत का लोकतांत्रिक विरोध क्यों जायज है?

 सूर्य प्रताप सिंह

पूर्व आईएएस अधिकारी

पद्मावत का लोकतांत्रिक विरोध आज भी क्यों जायज़ है और सरकारें भी नरम क्यों हैं?  ऐतिहासिक संदर्भों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में, इतिहास-सम्मत एवं जनभावना के अनुरूप ही अभिव्यक्त करना चाहिए।साहित्य सृजन में ऐतिहासिक घटना को रोचक बनाने के लिए कल्पना की कुछ छूट तो स्वाभाविक है, मगर सृजनात्मकता के नाम पर कल्पना की उड़ान पात्र की गरिमा व इतिहास तथा जनभावनाओं के अनुकूल ही होनी चाहिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इतिहास,जनमानस आत्मसम्मान व संस्कृति के साथ खिलवाड़ गलत है। समाज भी जनतांत्रिक तरीके से किसी भी प्रकार की ऐतिहासिक छेड़छाड़ के विरूद्ध आंदोलन एवं जन जागरण के लिए स्वतंत्र है, जैसा आज सनातन/राजपूत समास पद्मावत के विरुद्ध कर रहा है। उदारवादी लोकतंत्र में ‘सांस्कृतिक मान्यताएँ, आस्थाएँ व जनभावनाएँ’ किसी भी संविधान व न्यायालय के आदेश से ऊपर स्थान रखती हैं।

यदि कल न्यायालय यह आदेश दे दे कि विवाहित हिंदू महिलाएँ अपनी माँग में सिंदूर लगाना इसकिए छोड़ दें क्यों कि सिंदूर अर्थात Mercuric Sulphite (HgS) एक ज़हर है तो क्या ऐसा न्यायालय का आदेश हिंदू जनभावनाओँ को स्वीकार होगा। यदि कल सर्वोच्च न्यायालय यह कह दे कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और इस लिए वहाँ राम मंदिर नहीं बनना चाहिए तो क्या यह जनभावनाओं को स्वीकार होगा। इसीलिए आस्थाओँ व सांस्कृतिक मान्यताओँ से उपजी जनभावनाएँ किसी ‘क़ानूनी तर्क’ की मोहताज नहीं होती, उनसे उपजे ज्वार/भावनात्मक सैलाब को किसी भी सरकारी लाठी, डंडे व गोली से कोई भी सरकार लम्बे समय तक रोक ले, शायद यह सम्भव नहीं। इन्ही बातों के मध्येनज़र CM योगी ने भी फ़िल्म पद्मावत पर अपना बयान दिया था कि ‘भंसाली जनभावनाओं से खेलने के आदी हैं,

जो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।’ यद्यपि अभी फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई है लेकिन उपलब्ध ट्रेलर/सूचना के अनुसार पद्मावत फ़िल्म के विषय में लोगों की मान्यता है एक अक्रांता शासक का महिमामंडन व स्त्रीत्व का अपमान किया गया है. माँ पदमवती एक समुदाय को ‘माँ-भवानी’ की तरह पूज्यनीय है, आस्था का प्रश्न है तो इस विषय पर फ़िल्म बनाकर रानी पदमवती को ग़लत पहनावे व पुरुषों की उपस्थिति में ‘घूमर-नृत्य’ करते हुए दिखाकर…लोगों की भावनाओं को भड़काने की क्या ज़रूरत थी, क्या फ़िल्म बनाने के लिए ऐसी विषय वस्तुओं/घटनाओं की कमी है जो सर्व समाज के कल्याण को प्रेरित करे, समाजहित में ‘टॉलेट एक प्रेम कथा’ या ‘पैडमैन’ जैसी फ़िल्मे भी तो बन सकती हैं, जिनमें मनोरंजन के साथ-२ एक सामाजिक संदेश भी होता है

हाँ भंसाली की तरह ‘बड़ा पैसा’ कमाने की लालसा/लोभ शायद कम होगा। ऐतिहासिक छेड़छाड़ वाली ‘पद्मावत’ फ़िल्म के विरोध में युवाख़ून से भावनाओं के सैलाब के अधीन कुछ तोड़फोड़ या त्रुटि हो सकती है

लेकिन सरकारों को ध्यान रखना चाहिए कि यदि इस भावनात्मक विरोध को लाठी या गोली से कुचलने का प्रयास किया तो जैसे ‘बाबरी ध्वंस’ के समय हुआ था वही हालात पैदा हो सकते हैं मेरे जैसे कई ‘क्षुब्ध-संभ्रांत’ लोग भी इस आहुति में कूदने से परहेज़ नहीं करेंगे।