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पतरकी (पुस्तक समीक्षा)

सूर्य कुमार त्रिपाठी

हिन्दी साहित्य के मठाधीशी ने , मोबाइल की क्रांति ने, हिन्दी पुस्तकों के दाम ने पाठक के बीच की दूरी को बहुत लम्बा कर दिया । आप भारतीय प्रेस की रिपोर्ट देखें तो पायेंगे कि हिन्दी साहित्य और यहाँ तक कि पत्रिकाओं के प्रसार संख्या में बहुत कमी आई है। कारण बहुत हैं उसके बारे में बाद में । हां जो आज खास है वह यह कि इस विपरीत माहौल में यदि कोई उभरता हुआ लेखक उपन्यास लेकर प्रकाशक की सहमति प्राप्त करले तो प्रकाशक और लेखक दोनों बधाई के पात्र हैं।

नवोदित लेखक आशीष त्रिपाठी अपने पहले उपन्यास “पतरकी” के साथ बाजार में हैं। किसी साहित्यिक पुस्तक का विमोचन अब तक के परम्परागत रीति रिवाजों से हट कर करना लेखक के आत्मविश्वास की कथा स्वयं सिद्ध करता है। सिर्फ आभासी दुनिया के मित्र मंडली जो निश्चित तौर पर उभरते लेखकों कवियों की जमात से गोपालगंज साहित्य सम्मेलन में विमोचन कराना एक उपलब्धि है। क्योंकि स्थापित तथ्य है कि पुस्तकों को बेचने के उद्देश्य से बड़े स्थापित नाम से पैसा खर्च कर विमोचन की क्रिया कराकर चरणाश्रयी बन लाभ की कल्पना की जाती है। पर आशीष और पतरकी दोनों इसमें अलग हैं ।

बहुत दिनों बाद एक पुस्तक पतरकी आई है जिसे पढ़ने पर आपको यह लगता ही नहीं कि आप कोई काल्पनिक उपन्यास पढ़रहे हैं । लगता है कि आप के सामने अगल बगल की ही दुनिया है नाम बदले हैं । सबकुछ सामान्य और विशिष्ट । आप सोच रहे होंगे कि सामान्य और विशिष्ट दोनों कैसे । सामान्य शब्दों में विशिष्ट भावनाएं हैं । आप पढ़ते समय प्रेमचन्द को याद कर सकते हैं।

पतरकी , नाम में जो कसक है वह पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के भोजपुरी भाषी अच्छी तरह समझते हैं । नायिका है पतरकी । उसकी चंचलता और मूल्यों के साथ का अनुशासन आपको उसके साथ जुड़े रहने को बाध्य करता है। पचास के वय के लोग अभी बच्चा सिंह को काल्पनिक नहीं मान सकते । ऐसे चरित्र देखे गये हैं।

कुबेरदत्त जैसे लेखपाल और चतुरानन सिंह का सरकारी महकमें का दुरुपयोग हम सब कहीं ना कहीं जानते ही हैं । जोता देवी और मार्कण्डेय जैसे पोते हर घर में मिल जायेंगे जहाँ दादी अपने पोते का हर पाप छुपा आगे आती है।

पतरकी की मां पालकी तो हर घर में है। जो अपनी बिटिया की सुरक्षा संरक्षा के लिए चिन्तित रहती है। हां कुबेरदत्त जैसे पति की नजर से देंखे तो पालकी में अपनी ही पत्नी नजर आयेगी ।?? आशीष की यहाँ तारीफ बनती है।

नशा अभिशाप है। यह सामाजिक मूल्य बताने में यह पतरकी सर्वथा सफल है।चतुरानन सिंह का यह मान लेना कि “मार्कण्डेय का पथभ्रष्ट होना संरक्षण के अभाव का परिणाम है। ” पिता पुत्र के सामाजिक नैतिक व्यवहार के हिले हुए रूप का रूपक है। जो एक पाठक पिता को सचेत करता है।

धनुधारी और चंदा का जोरदार किरदार हम सबके अगल बगल उपलब्ध हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों में । चंदा जब एकबार धनुधारी से कहती है कि ” हां तो बहुतै बड़े छछुन्नर आदमी हो तुम बता दे रहे हैं। ” वह ग्रामीण रोमांस की पराकाष्ठा है। उस समय पाठक के चेहरे पर मुस्कान स्वतः तैर उठती है।

मोहित का चरित्र आजके युवा का प्रतिबिंब है। पर बृजभान लाल एक आदर्श अध्यापक और एक आदर्श पिता के अलावा एक आदर्श व्यक्तित्व के स्वामी हैं जो पाठक को उनके तरफ खड़ा रखता है।

पतरकी गजब है , मंजरी भाभी के साथ जो वह कर रही है समाज में महिलाओं की दमदार उपस्थिति और भाव परिवर्तन बताने के लिए उपयुक्त है। मोहित के साथ पतरकी के जुडा़व और आहत मन को बताने के लिए एक व्यक्तव्य ही काफी है ” हाय राम , चतुरानन बाबू का स्वर्गवास हो गया क्या ? ” पाठक इस व्यंग्य से विस्मित नजर आता है।

पतरकी वास्तव में संवेदनाओं और सामाजिक व्यवहार की ऐसी मीठी जलेबी है कि आप एक बार शुरु करके पूरा होने तक रसास्वादन करते रहेंगे। जैसे जलेबी का छोर कौन सा ज्यादा मीठा है पता नहीं चलता उसी प्रकार पतरकी के सारे चरित्र पता ही नहीं चलने देते कौन हमारे अगल बगल नहीं है।

संपादन की वर्तनीय त्रुटियाँ जो सिर्फ चार पांच जगह हैं के अलावा चतुरानन सिंह के परिवार को एक झटके में समेटना अखरता है पर ग्राह्य है।

आशीष की गहरी और बारीक नजर का एक उदाहरण उनका यह कहना ही है कि ” अपना दुखडा़ सुनाते वक्त शराबियों को श्रोताओं की निष्ठुरता बहुत बुरी लगती है। ” पतरकी सबको अपनी लगती है। उम्मीद है यह मील का पत्थर साबित होगी । आशीष त्रिपाठी को उनके पहले और शानदार पठनीय उपन्यास के लिए बधाई शुभकामनाएं ।