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त्रिवेंद्र सिंह रावत: RSS के ‘अपने आदमी’ ने यूं तय किया सीएम की कुर्सी तक का सफर

देहरादून/नई दिल्ली। उत्तराखंड के 9वें सीएम बनने जा रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत ने संघ प्रचारक से लेकर सीएम तक के सफर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं। सीएम की कुर्सी उन्हें यूं ही नहीं मिल रही। इसके लिए उन्होंने पार्टी में अपनी काबिलियत कई मौकों पर साबित की है।

रावत करीब 14 साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे। 20 दिसंबर 1960 को पौड़ी गढ़वाल के जहरीखाल ब्लाक के खैरासैंण गांव में फौजी परिवार में जन्मे रावत 19 साल की उम्र में संघ से जुड़ गए थे। इसके बाद वह संघ की शाखाओं में नियमित रूप से जाने लगे। 1981 में संघ की विचारधारा का उनपर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने बतौर प्रचारक ही काम करने का फैसला कर लिया। वह पढ़ाई के बाद मेरठ में तहसील प्रचारक बन गए और संघ की विचारधारा का प्रचार करने लगे। 1985 में उन्हें देहरादून महानगर का प्रचारक बनाया गया।

1993 में संघ की ओर से उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गई। उत्तराखंड आंदोलन में भी त्रिवेंद्र की अहम भूमिका रही। वह कई बार गिरफ्तार हुए और जेल भी गए। 1997 से 2002 तक वह प्रदेश संगठन मंत्री रहे। संगठन मंत्री का पद संघ के किसी व्यक्ति को ही दिया जाता है, जिसका काम बीजेपी और संघ के बीच समन्वय बनाना होता है। रावत ने कुछ समय तक यूपी में लालजी टंडन के ओएसडी के रूप में भी काम किया।उत्तराखंड बनने के बाद 2002 में रावत पहली बार डोईवाला सीट से विधायक चुने गए थे। 2007 में डोईवाला से दोबारा रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की और कृषि मंत्री बने। इस दौरान बीजेपी ने विधानसभा, लोकसभा और विधान परिषद चुनावों में बड़ी सफलताएं हासिल कीं। 2012 में उन्होंने राज्य की रायपुर सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए। 2013 में पार्टी ने त्रिवेंद्र रावत को राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी दी। 2014 में डोईवाला के उपचुनाव में उन्हें हार मिली, जबकि 2017 में हुए चुनाव में वह डोईवाला से जीत गए।

2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यूपी के प्रभारी थे तो त्रिवेंद्र पर भरोसा करते हुए उन्हें यूपी का सह-प्रभारी बनाया। इस दौरान उन्हें शाह के साथ काम करने का मौका मिला। संघ के सूत्रों के मुताबिक, रावत ने संघ प्रचारक रहने के दौरान यूपी में जिस तरह घर-घर जाकर संपर्क किया था, उसी वजह से उन्हें यूपी का सह-प्रभारी बनाया गया। उनके संघ के अनुभव ने ही यूपी की जीत में बड़ी भूमिका निभाई। शाह की वजह से ही त्रिवेंद्र रावत पीएम मोदी के करीब भी पहुंचे। अक्टूबर 2014 में उन्हें झारखंड का प्रदेश प्रभारी बनाया गया। सूत्रों के मुताबिक, उस वक्त रावत ने टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में रणनीतिकार की भूमिका निभाई और जीत की जमीन तैयार की। इसके बाद बीजेपी ने झारखंड में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इस कामयाबी की वजह से ही उनकी संगठन क्षमता का लोहा राष्ट्रीय नेतृत्व ने भी माना।

उत्तराखंड में सीएम पद की दौड़ में कई नाम चल रहे थे, लेकिन त्रिवेंद्र रावत का बैकग्राउंड सबसे निर्णायक फैक्टर साबित हुआ। संघ के एक नेता के मुताबिक, अगर प्रचंड बहुमत में भी ‘अपने आदमी’ को सीएम की कुर्सी नहीं मिलती तो ऐसे बहुमत का क्या फायदा होता? उन्होंने यह भी दावा किया कि संघ की पृष्ठभूमि से आए लोगों के अलावा किसी और के नाम पर विचार ही नहीं किया गया। संघ की प्रदेश इकाई ने रावत के नाम पर मुहर लगाकर अमित शाह को संदेश भिजवा दिया था। रावत उत्तराखंड के राजनैतिक समीकरणों में भी फिट बैठते हैं। कुमांऊ–गढ़वाल समीकरण और ब्राह्मण-ठाकुर समीकरण, दोनों में। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट कुमाऊं से हैं और ब्राह्मण हैं जबकि त्रिवेंद्र सिंह रावत गढ़वाल के ठाकुर हैं।

सैनिक परिवार से जुड़े त्रिवेंद्र रावत के पिता प्रताप सिंह रावत गढ़वाल राइफल्स में सैनिक रहते हुए दूसरे विश्वयुद्ध में जंग लड़ चुके हैं। आठ भाई और एक बहन में त्रिवेंद्र सबसे छोटे हैं। उनके एक भाई बृजमोहन सिंह रावत खैरासैंण स्थित गांव के पोस्ट ऑफिस में पोस्टमास्टर हैं जो परिवार समेत गांव में ही रहते हैं। त्रिवेंद्र के दो बड़े भाइयों का निधन हो चुका है। त्रिवेंद्र का परिवार गांव के पैतृक घर में ही रहता है। एक भाई का परिवार सतपुली कस्बे में रहता है, जबकि बड़े भाई वीरेंद्र सिंह रावत जयहरीखाल में नई तकनीक से खेती को बढ़ावा दे रहे हैं।

त्रिवेंद्र ने आठवीं तक की पढ़ाई अपने मूल गांव खैरासैंण के ही स्कूल में की। इसके बाद 10वीं की पढ़ाई सतपूली इंटर कॉलेज और फिर 12वीं इंटर कॉलेज एकेश्वर से की। त्रिवेंद्र ने स्नातक राजकीय महाविद्यालय जयहरीखाल से किया, जबकि पत्रकारिता की पढ़ाई गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर कैम्पस से की। उत्तराखंड स्थित गढ़वाल यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान त्रिवेंद्र सिंह रावत बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी से जुड़ गए थे। उनके साथी बताते हैं कि उस वक्त से ही वह संघ प्रचारकों के चहेते थे। रावत के साथ रहे एक संघ प्रचारक ने बताया कि जब बाबरी मस्जिद गिरी उसके बाद यूपी में तनाव का माहौल था और कर्फ्यू लगा हुआ था। ऐसे माहौल में वह रावत की शादी में शामिल होने गए थे। कर्फ्यू के दौरान ही दिसंबर 1992 को रावत की शादी हुई। रावत की पत्नी सुनीता रावत टीचर हैं और उनकी दो बेटियां हैं।