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क्रिसमस के बहाने:सूली पर लटके ईसा की तस्वीर देख रो पड़े थे ‘मास्टर क्रिश्चियन’ गांधी

अव्यक्त
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बीती सदी में ब्रिटेन की मशहूर लेखिका माउडी रॉयडेन जब 1928 में महात्मा गांधी से पहली बार मिलीं तो उन्होंने लिखा, ‘ मुझे गांधी में एक महान ईसाई के दर्शन हुए।’ बाद में गांधी को श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित अपने लेख का शीर्षक उन्होंने दिया था- ‘मास्टर क्रिश्चियन’।

गांधी रूपी यही ‘महान ईसाई’ जब 1931 में गोलमेज सम्मेलन से लौट रहा था तो इसे वेटिकन जाकर पोप के दर्शन की इच्छा हुई। लेकिन मुसोलिनी के फासीवादी साये में कई प्रकार के द्वंद से गुजर रहे पोप पियस एकादश ने गांधी से मिलने से इनकार कर दिया।

गांधी ने फिर भी बड़ी सहजता से वेटिकन जाने का फैसला किया। मुसोलिनी से अनौपचारिक भेंट के बाद वे सीधे वेटिकन पहुंचे। वहां की गैलरियों से गुजरते हुए सिस्टीन चैपल में जब उन्होंने सूली पर लटके ईसा की तस्वीर देखी, तो इसके बारे में उन्होंने बाद में कहा- ‘यह अद्भुत था। मैं अपने आंसू रोक नहीं सका। इसे देखते ही वे मेरी आंखों से एकबारगी छलक पड़े।’

पोप और गांधी के इस मिलनभंग पर कयासों और कहानियों का एक दौर ही चल पड़ा। इन कहानियों के केन्द्र में था गांधी का खद्दर वाला वस्त्र। यूरोप के अखबारों ने लिखा कि पोप इसलिए गांधी से नहीं मिले क्योंकि गांधी ने बहुत तंग कपड़े पहन रखे थे।

इसी दौरे में ब्रिटेन के राजा-रानी से इसी ‘तंग’ कपड़े में मिलने गए गांधी पर व्यंग्य की भाषा में चर्चिल ने उन्हें ‘अधनंगा फकीर’ कहा था। बाद में महात्मा गांधी की शहादत के अगले दिन अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपने श्रद्धांजलि लेख में इसकी तसदीक की थी कि पोप ने तंग कपड़ों वाले वेश की वजह से गांधी से मिलने से इनकार कर दिया था।

अखबार ने यह भी लिखा कि उसी दौरान जब ब्रिटेन की पहली महिला सांसद नैन्सी एस्टर ने गांधी को लंच पर बुलाया तो संभवतः यहीं पर गांधी के बहुत इंतजार करते रहने पर भी मिलने का वादा करने वाले न्यूयॉर्क के मेयर जेम्स वॉकर जानबूझ कर उनसे मिलने नहीं पहुंचे।

गांधी के तंग कपड़ों से विचलित होने वाला यूरोप और अमेरिका यहीं तक नहीं रुका था। इसी दौरान अमेरिका के अखबारों में वह व्यंग्यचित्र छपा जिसमें बूढ़े गांधी को सूट-पैंट-टाई में हैट और स्टिक के साथ दिखाया गया था और नीचे कैप्शन में लिखा था- ‘यदि आप एक सभ्य आदमी की तरह व्यवहार करें और वस्त्र पहनें तो अमेरिका में आपका स्वागत होगा। फिर आप हमारी खुल कर निंदा करें तो भी हम बुरा नहीं मानेंगे।’

बाद में भले ही गांधी के सादे वस्त्र को मदुरै के एक गरीब फटेहाल से मिलने की घटना से जोड़ा गया हो, लेकिन गांधी अपने खद्दर के राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और सभ्यतागत निहितार्थों से अनभिज्ञ नहीं थे। खास बात यह थी कि आत्मत्याग और संयम का गांधी का संदेश ईसा के संदेशों से तो बिल्कुल मेल खाता था, लेकिन भोगवादी पश्चिम के साथ ही चर्च या गिरजा के संदेशों से टकराता भी था।

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अब जबकि धर्मोपदेशक, मठाधीश और पुरोहित स्वयं इस भोगवृत्ति की चपेट में आ चुके हैं। अमर्यादित भोगवाद की यह बीमारी महामारी के रूप में यूरोपीय और अमेरिकी समाजों के बुनियादी ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में लगी है।

आंतरिक और बाहरी युद्धों में उलझकर पैरानोइया या मानसिक उन्माद की हद तक सब असुरक्षित हो चुके हैं। जब उनका और हम सबका नैतिक अस्तित्व भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है।

तब जाकर पोप को ईसा के आत्मत्याग और संयम संबंधी संदेशों का वास्तविक परिप्रेक्ष्य जानने में आया है। पिछले दो-तीन दशकों से अन्य ईसाई धर्मगुरुओं ने भी मर्यादाहीन भोगवाद, उच्छृंखलतापूर्ण विज्ञापनवाद और अनर्गलता की हद पर पहुंच चुके उपभोक्तावाद के खिलाफ कठोर संदेश देने का प्रयास किया है।

लातिनी अमेरिका के अपने दौरे पर पोप ने कहा था कि ‘धन की बलिवेदी’ पर गरीबों की कुर्बानी दी जा रही है और धनिक वर्ग बाइबल में वर्णित स्वर्ण-शावक की जगह एक नए सोने के बछड़े (अमर्यादित पूंजी और भोग) की पूजा में लगा है।

क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर पोप ने समकालीन दुनिया को ‘भोगवाद और सुखवाद, धन और अपव्यय, दिखावा और अहंकार के नशे में चूर समाज’ की संज्ञा दी थी।

(क्रिसमस को लेकर चल रहे अतिवादी दृष्टिकोण और विमर्श के बीच एक पुराना लेकिन बेहद सामायिक आलेख. इसे हमने लेखक के  फेसबुक पेज से लिया है. )