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कैसे चाचा के सामने झुक के भी जीते अखिलेश

यूपी चुनावों से पहले, अखिलेश ने दिखाया उनमें भी हैं बागी तेवर

rdescontrollerलखनऊ। इस बात को लेकर बहस की गुंजाइश बनती है कि यादव परिवार में पिछले एक हफ्ते से चल रहे ‘घमासान’ में कौन जीता और कौन हारा। किसने क्या हासिल किया और किसने क्या गंवाया। लेकिन अगर बहस की गुंजाइश कहीं नहीं बनती तो वह एक ही बिंदु है और वह यह कि अखिलेश ने यह साबित कर दिया है कि उनमें भी बागी तेवर हैं। हर वह हुक्म, जो उनके पिता जी या चाचा के घर से चलेगा और उनकी सरकार के सिलसिले में होगा, उसको मानने के लिए वह मजबूर नहीं हैं।

सीएम ने नहीं डाले हथियार
बतौर सरकार के मुखिया, अखिलेश के सामने तमाम ऐसे कदम उठाने का जोखिम लेना आ गया है, जो हो सकता है कि उनके पिता जी या किसी चाचा को नागवार गुजरे, लेकिन उसकी उन्हें बहुत फिक्र नहीं रहेगी। यह बात कही जा सकती है कि 2-4 दिन के अंदर अखिलेश को अपने कई फैसले पलटने पड़े, लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि अखिलेश ने हथियार डाल दिए। इसे इस तरह से देखा जाना चाहिए कि सुलह-समझौते की कोशिश में उन्होंने अपनी तरफ से कुछ रास्ता दिया है। इस संकेत के साथ कि उन्हें अब ‘बच्चा’ नहीं समझा जाना चाहिए।

पार्टी प्रमुख के रूप में मुलायम के लिए भी यह संदेश है कि उन्हें अखिलेश यादव को ‘मुख्यमंत्री यूपी’ भी समझना होगा। अगर वह उन्हें सिर्फ ‘टीपू’ (अखिलेश को परिवार में इसी नाम से पुकारा जाता है) ही समझने की भूल करते रहे तो भविष्य में पार्टी के लिए और ज्यादा मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

4 साल की सीख
चार साल सरकार चलाने के अनुभव ने ही अखिलेश को यह सीख दी है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के लिए बेशक उन्हें पिता के सहारे की जरूरत थी, लेकिन खुद को सफल मुख्यमंत्री साबित करने का जिम्मा खुद उनका है। इसमें उनकी कोई मदद नहीं कर सकता। 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिले विशाल बहुमत के पीछे अखिलेश यादव की छवि की बेहद अहम भूमिका थी। वह राजनीति में ताजा हवा के झोंके की मानिंद आए थे।

अखिलेश को मालूम है कि 2017 के चुनाव में अगर उन्होंने खुद को ‘निरीह’, ‘रबर स्टांप’, ‘बच्चा’ या ‘भतीजा’ की इमेज से अलग नहीं किया तो इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। जाहिर सी बात है कि ट्रैक बदलना इतना आसान नहीं था और जोखिम भी बहुत थे। अखिलेश ने जोखिम उठाने का साहस किया क्योंकि उनके साथ उसके बाद जो कुछ शुरू हो गया था, उसमें अगर वह खामोश रह जाते तो फिर पार्टी के अंदर ही उनकी राजनीति ढलान पर आ जाती।

तेवर दिखाने की मजबूरी
प्रदेश प्रभारी बनने के बाद शिवपाल यादव ने संगठन को चुस्त-दुरस्त करने और अनुशासन हीनता पर लगाम कसने के नाम पर सबसे पहले अखिलेश के बेहद करीबी 2 दोस्तों आनंद भदौारिया और साजन यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। एक तरह से यह अखिलेश पर हमला था। संदेश भी साफ था कि अखिलेश पार्टी के अंदर कितने ताकतवर हैं देख लो।

कई मौकों पर अखिलेश को अनदेखा किया
अखिलेश संगठन में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी थे और सरकार के मुखिया भी, लेकिन मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के विलय के मुद्दे पर उनसे बातचीत की कोई जरूरत ही नहीं समझी गई। वरिष्ठ मंत्री बलराम यादव ने पहले शिवपाल यादव और मुख्तार अंसारी के बड़े भाई अफजाल अंसारी के बीच बातचीत का रास्ता तैयार किया और उसके बाद दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई।

फिर शिवपाल यादव ने मुलायम से राब्ता कायम किया। उन्होंने भी अखिलेश को विश्वास में लेने की जरूरत नहीं समझी। उन्हें भी अखिलेश पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या मुख्यमंत्री नहीं लगे, बस ‘टीपू’ ही लगे, जिन्हें उन 2 भाइयों के बीच बनी सहमति को मानना ही था।

अखिलेश के लिए फायदे की बातें
हालिया घटनाक्रम से अखिलेश यादव को निश्चित रूप से कई सियासी फायदे दिखते हैं। पहला तो यह कि वोटरों में यह मैसेज गया है कि अखिलेश ने सबकी ‘औकात’ बता दी। वह अब दबने वाले नहीं हैं। अब वह अपनी मर्जी से सरकार चला सकते हैं। दूसरा फायदा पार्टी में अखिलेश को यह मिलेगा कि उन पर अब फैसले थोपे नहीं जाएंगे। फैसलों में उनकी मर्जी भी चलेगी।