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काशी की आस्था सच, यहां सभ्यता 6,000 साल पुरानी

Varanasi3वाराणसी। विज्ञान और आस्था अधिकतर एक-दूसरे के विरोधी पाले में खड़े रहते हैं। ऐसा कम ही होता है कि जब दोनों का पक्ष एक हो जाए। हिंदुओं की पौराणिक नगरी काशी को लेकर भी ऐसा ही हुआ है। विज्ञान और तकनीक ने आस्था पर मुहर लगाई है।
IIT खड़गपुर द्वारा जीपीएस और अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर किए गए एक विस्तृत शोध से काशी की पौराणिकता बहुत बढ़ जाती है। शोध के नतीजे बताते हैं कि हिंदुओं की इस पावन नगरी में सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ही लगातार इंसानी आबादी रहती आई है। इस हिसाब से काशी लगभग 6,000 साल पुराना शहर है। इस शोध के लिए केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने फंड दिया था। पहले चरण के शोध के लिए 20 करोड़ का फंड दिया गया। पीएम मोदी ने भी इस शोध में खासी दिलचस्पी ली। हाल ही में वाराणसी आए पीएम ने इस शोध के अबतक के नतीजों की जानकारी भी ली। IIT खड़गपुर के शिक्षकों से मिलकर उन्हें शोध की संभावनाओं के बारे में जाना।

जीपीएस तकनीक के विस्तृत इस्तेमाल से किए गए इस शोध में IIT खड़गपुर के 7 अलग-अलग विभाग शामिल हैं। इसमें काशी में अलग-अलग दौर में इंसानी सभ्यता के विकास को जानने की कोशिश की गई। साथ ही यह पता करने की भी कोशिश की गई कि किस तरह वाराणसी एक जिंदा और लगातार कायम रहने वाली सभ्यता को बरकरार रखने में कामयाब हुआ। दुनिया भर में बाकी इंसानी सभ्यताओं के साथ तुलना करें तो वाराणसी की निरंतरता अनोखी है।

शोधकर्ताओं ने वाराणसी शहर में कई जगह 100 मीटर गहरे बोरिंग छेद किए। नतीजे बताते हैं कि यहां 2000 ईसा पूर्व के समय से लगातार इंसानी सभ्यता के साक्ष्य हैं। डेटा जमा करने का काम हालांकि अभी पूरा नहीं हुआ, लेकिन अब तक के ही शोध में यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत मिल गए हैं कि वाराणसी में इंसानी सभ्यता 4500 ईसा पूर्व तक जा सकती है। सभ्यता के सबसे पौराणिक अवशेष शहर के गोमती संगम इलाके में मिले हैं। भूगर्भीय परतों की जांच का काम हो गया है और ये नतीजे इसी आधार पर निकाले गए हैं।

ब्रिटिश जियोलॉजिकल सर्वे भी इस शोध में संयुक्त रूप से शामिल है। अबतक के शोध में साबित हो चुका है कि वेदों और काशीपुराण में जिस नैमिषारण्य वन का जिक्र किया गया है, वह असल में था। इतने साल से इस वन को पौराणिक और मिथकीय माना जाता है।

शोधकर्ता कोलकाता से प्रयाग (इलाहाबाद) होते हुए वाराणसी पहुंचने वाली नदी के रास्ते को भी जानने की कोशिश कर रहे हैं। इस शोध के नेतृत्व कर रहे जॉय सेन IIT खड़गपुर के वास्तुकला व योजना विभाग के वरिष्ठ प्रफेसर हैं। उन्होंने बताया, ‘प्राचीन समय से ही लोग इस रास्ते का इस्तेमाल करते आ रहे थे, लेकिन रेलवे के आने के बाद यह बंद हो गया। हम उस रास्ते को फिर से जानने की कोशिश कर रहे हैं।’ इस शोध में संस्थान के मानविकी व समाज विज्ञान विभाग, कंप्यूटर विज्ञान, सूचना तकनीकी, इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलिकम्यूनिकेशंस व ओसियोनोग्रफी विभाग भी शामिल हैं। सूत्रों ने बताया कि इस मार्ग को पर्यटक के लिहाज से इस्तेमाल किया जाएगा।

घाटों के इस शहर में अस्सी, केदार, दशाश्वमेध, पंचगंगा और राजघाट को सबसे पुराना घाट माना जाता है। इनको लेकर एक हैरिटेज ट्रेल बनाने की भी कोशिश अलग से हो रही है। सेन ने बताया, ‘हम प्राचीन योगियों व अलग-अलग धार्मिक गुरुओं के आश्रमों की तलाश करने की कोशिश कर रहे हैं। घाट तक जाने के लिए ये आश्रम आसपास ही बसे थे। कई तो अब विलुप्त हो चुके हैं, वहीं कुछ बेहद जर्जर हालत में हैं। हम इन आश्रमों की तलाश कर फिर से उन्हें जिंदा करने की कोशिश करेंगे।’

यह शोध अगस्त 2015 में शुरू किया गया था। इसका एक लक्ष्य सारनाथ से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूरे क्षेत्र में हरियाली और जल स्रोतों को फिर से बहाल करना भी है। अवैध निर्माण और कब्जे को हटाने की कोशिशें की जा रही हैं ताकि पुराना पारिस्थितिकी तंत्र फिर से कायम किया जा सका। सेन बताते हैं, ‘वाराणसी सभी धर्मों और महात्माओं का गढ़ रहा है। इस प्रॉजेक्ट में सबको ही जगह दी जाएगी। जिन इलाकों में वृद्धाश्रमों और विधवा आश्रमों की बहुतायात, उन्हें विशेष जोन के तौर पर विकसित किए जाने की योजना है।’

इस शोध में भाषा, संगीत और शास्त्रों की भी अहम भूमिका है। काशीपुराण, स्कंदपुराण, महाभारत, रामायण और बौद्ध धर्म के अंगुत्तराण्यका को कई बार पढ़ा गया और इनमें काशी और काशीराज के संदर्भों को खंगाला गया। अब तक इन सबको केवल पौराणिक और मिथकीय ही माना जाता है।