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कानून को कानून ही रहने दें, ‘हथियार’ न बनाएं

रविकांत सिंह 

पूरे देश में भारत बंद का असर है. कहीं ज्यादा तो कहीं कम. मामला एससी/एसटी एक्ट में संशोधन का है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बिना सोचे विचारे किसी की शिकायत पर गिरफ्तारी नहीं कर सकते. जबतक किसी बड़े अधिकारी ने इसपर हामी ना भरी हो. सवाल है कि कोर्ट के इस फैसले में बुराई क्या है? अगर देश की शीर्ष अदालत ने कोई फैसला सुनाया है तो सोच-समझ कर ही सुनाया होगा.

क्या हम सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित के इस बयान से इत्तेफाक नहीं रख सकते कि जिस वक्त यह कानून बना था तब किसी को पता नहीं था कि इसका कितना दुरुपयोग हो सकता है. अदालत ही क्या, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रलय के आंकड़े भी कुछ इसी तरह की दलील देते रहे हैं. मंत्रालय ने अपने 2015 के आंकड़ों में बताया कि दलित प्रताड़ना के कुल 15638 मामलों में कोर्ट में सुनवाई हुई जिनमें से 11024 मामलों को या तो निरस्त कर दिया गया या फिर आरोपी बरी कर दिए गए. इतना ही नहीं, 495 मामले वापस ले लिए गए और केवल 4119 मामलों में ही आरोपियों को सजा हुई.

अब आप भी समझ सकते हैं कि सजा की इतनी कम दर से क्या साबित होता है. यह दर बताती है कि दलित प्रताड़ना निरोधक कानून के तहत दर्ज हुए अधिकतर मामले या तो फर्जी साबित हुए या अभियोजन पक्ष उन्हें साबित करने में नाकाम रहा. यह भी एक कड़वी हकीकत है कि इतने कठोर कानून की व्यवस्था होने के बावजूद देश में न तो दलित उत्पीड़न के मामलों में कमी आई है और न ही यह दलितों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने में कामयाब रहा है. इसलिए यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि एससी-एसटी कानून अपने मकसद की पूर्ति करने में नाकाम रहा है. इसीलिए जस्टिस यूयू ललित और आदर्श गोयल की दो सदस्यीय खंडपीठ को अपने फैसले में कहना पड़ा कि कोई भी कानून स्वार्थों की पूर्ति के लिए बेकसूर लोगों और लोकसेवकों को सजा दिलाने का हथियार नहीं बनना चाहिए.

2015 में कोर्ट भी कह चुका है 15 से 16 फीसदी मामलों में पुलिस क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर देती है और 75 फीसदी मामलों में अभियुक्त छूट जाते हैं.

फोटो पीटीआई से

फोटो पीटीआई से

मजे की बात देखिए कि अदालत दुरुपयोग की बात समझ गई पर हमारे दलित संगठन इससे अनजान हैं. उनमें इतनी नाराजगी भर गई कि वे कहीं पुलिस चौकी तो कहीं बसों को आग के हवाले कर रहे हैं. बड़े पैमाने पर तोड़-फोड़ कर रहे हैं. बच्चे परीक्षा नहीं दे पा रहे हैं तो मरीजों के मिमियाते एंबुलेंस सड़कों पर ठहर गए हैं. डरे-सहमे लोग घरों में कैद होने को अभिशप्त हैं.

डर के साये जो लोग घरों में दुबके हैं वे हल्की जुबान में पूछ रहे हैं कि क्या यही लोकतंत्र है? तो जवाब है कि इस घटना के लिए दोषी जितनी सरकार है उतनी ही एक वर्ग विशेष की राजनीति करनेवाले वाले विपक्षी दल भी. कई राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने प्रदेशों में कानून का शासन होने का दावा तो कर रहे हैं, पर उनके दावों को चंद असामाजिक तत्वों ने तार-तार कर दिया. पुलिस मूकदर्शक बनी है और जुलूस निकालने वाले सरेआम तांडव कर रहे हैं.

इन सबके बीच सरकार भी मूकदर्शक बनी पड़ी है क्योंकि मामला वोट बैंक का है. यह बात सब जानते हैं कि 2019 के चुनावों की बिसात बिछ गई है. कायदे से अब साल भर भी नहीं बचे चुनाव में. फिर क्यों कोई सरकार दलितों का कोपभाजन बनना चाहेगी.

अव्वल तो किसी भी सभ्य समाज में क्या दलित और क्या पिछड़ा, किसी के खिलाफ अत्याचार-अनाचार नहीं होना चाहिए. लेकिन समाज में कुछ खुराफाती हैं तो उनके लिए कानून जरूरी है. तब सवाल है कि कानून ही सिरदर्द बन जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट गौर नहीं कर सकता? कोर्ट ने यही किया और एक संशोधन मौजूदा एससी/एसटी कानून में नत्थी कर दिया. क्योंकि भला समाज कतई नहीं चाहेगा कि मामूली बात पर हरिजन एक्ट के तहत किसी को घसीटा जाए, जबतक कि उसके खिलाफ कोई मुकम्मल साक्ष्य न हो. लेकिन यहां साक्ष्य की कौन कहे, अदना शिकायत पर पुलिस आरोपी को धर ले जाती है. आगे क्या होता है आप भी जानते हैं.

ऐसे में सोमवार का ‘भारत बंद’ चीख-चीख कर दलित संगठनों से पूछ रहा है कि वैसा कानून किस काम का जो बिना जांच या शिकायत के किसी को अंदर करा दे. क्योंकि कानून का मकसद हमेशा रक्षा, निरोध और निवारण का होना चाहिए न कि किसी के खिलाफ हथियार बनाने का. और यह तभी हो पाएगा जब उसे मानने वाले लोग अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग-दुरुपयोग करना बंद करेंगे.