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कर्मफल और भाग्य की महत्ता

राहुल पाण्डेय ‘अविचल’
श्रीमद्भागवत गीता में कर्म के महत्त्व को मैंने पढ़ा लेकिन भाग्यहीन व्यक्ति का कर्म भी शायद उसकी मदद नहीं करता है ।
उत्तर प्रदेश में सीमित पदों पर फार्मासिस्ट की भर्ती आयी थी विवाद बढ़ा तो सुप्रीम कोर्ट से पद बढ़े , सब बहुत खुश थे और स्वास्थ सचिव ने 10000 रुपया प्रति व्यक्ति से मांग की तो लगभग दो सौ लोगों ने दम्भ दिखाया कि वो सुप्रीम कोर्ट से जीतकर आये हैं एक चवन्नी नहीं देंगे ।
स्वास्थ सचिव ने सबका आवेदन फॉर्म फड़वा दिया और वे लोग नौकरी न पा सके ।
शिक्षक भर्ती में 1100 याचियों को राहत मिली लेकिन मात्र 862 ही नौकरी पा सके, उसमे से 841 ही वर्तमान में कार्यरत हैं, क्या अवशेष कर्महीन थे ?
हक़ीक़त में तो 841 में कितने कर्महीन हैं मगर वे भाग्यवान थे ।
72825 भर्ती की प्रक्रिया में जब तक निर्णय नहीं हो रहा है सब भाग्य के बल पर ही टिके हैं और उसके चतुर नेतागण अतिरिक्त कमाई में भी सफल हैं । शिक्षामित्र के लिए तो सिर्फ भाग्य का प्रयोग किया जायेगा क्योंकि कर्म तो उनका बहुत लंबा है लेकिन आय में एक शून्य दाहिने बढ़ने का कर्म तो नहीं ही था ।
उत्तर प्रदेश में मेरी नजर में अनगिनत मामले हैं जिसमे कि अवैध कार्य हुआ तथा हाई कोर्ट ने निरस्त किया लेकिन सुप्रीम कोर्ट से स्थगन मिल गया और अवैध लोग भाग्य के बल पर मलाई काट रहे हैं ।
841 याची नियुक्ति के मामले में तो बेसिक शिक्षा परिषद के अधिवक्ता श्री राकेश मिश्रा ने सूची बनाकर भेज दी और लोग नियुक्ति पा गये अन्यथा दूसरा कोई अधिवक्ता होता होता तो अनगिनत आवेदन लेकर 1100 के ऊपर की संख्या दिखाकर नियुक्ति रोक देता और कोर्ट में जवाब लगा देता कि याची की संख्या 1100 से अधिक हो गयी अतः नियुक्ति संभव नहीं थी ।
भर्तृहरि कहते हैं कि कितने ही हाथ-पैर मार लो , होता वही है जो ललातपट्ट नाम के स्थान पर लिखा है ।
इस दिशा में कवि ने तीन प्रयोग किये थे । एक तो यह कि कवि ने कहीं से एक अदद बाल्टी ली और पहले उसे कुएं में डुबोया और फिर समुद्र में । कवि ने देखा कि बाल्टी को कहीं भी डुबोइए – पानी उसमें उतना ही आता है । इस प्रयोग से सिद्ध हो गया कि यदि आपके भाग्य में चपरासी ही होना बदा है तो चाहे आप तहसील में काम करें चाहे केंद्रीय सचिवालय में – आप चपरासी ही रहेंगे । दूसरे, भर्तृहरि ने एक ऐसे आदमी को लिया जो गंजा था । पहले तो ये हजरत धूप में चले , जिससे इनके सिर को काफी कष्ट पहुंचा । छाया लेने के लिए जब ये एक पेड़ के नीचे खड़े हुए तो ऊपर से एक बड़ा फल गिरा जिससे इस गंजे महोदय का सिर और फल दोनों एक साथ फट गए । सिद्ध हो गया कि भाग्यहीन व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है , विपत्ति भी साथ ही साथ जाती है । तीसरा प्रयोग भर्तृहरि ने एक सांप के साथ किया । उन्होंने एक साँप को लिया और पिटारे में बंद कर दिया । कई दिनों तक वह भूखा कैदखाने में पड़ा रहा । सांप का भाग्य देखिये कि एक चूहा उस पिटारे के पास आया और उसे सूंघने लगा । उसने उस पिटारे में छेद किया और भीतर चला गया । साँप ने उस चूहे का भोजन किया और फिर उसी छेद के सहारे बाहर की राह भी पकड़ी ।
इन तीन प्रयोगों के बाद कवि भर्तृहरि को भाग्य पर इतनी आस्था हो गयी कि उन्होंने लिखा कि मनुष्य की न तो शक्लसूरत फलती है , न कुल , शील , विद्या और न सेवा। सिर्फ पूर्वजन्म के कर्म फलते हैं और बस ।
इन सबके बावजूद भी मेरा ख्याल भिन्न है ।
भगवान स्वयं कहते हैं कि कर्म , अकर्म , दुष्कर्म – सभी का स्वरुप जानना जरूरी है क्योंकि कर्म की गति गहन है ।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ।।