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कर्नाटक में यदि BJP नंबर-1 बन गई, तब भी क्‍या कांग्रेस में लीडरशिप गांधी परिवार के पास रहेगी?

अतुल चतुर्वेदी

कर्नाटक चुनाव के नतीजे वैसे तो कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए ही अलग-अलग कारणों से अहमियत रखते हैं लेकिन कांग्रेस के लिए इनके चुनावों की खास अहमियत कई अन्‍य कारणों से भी है? पहला, यदि कांग्रेस जीत गई तो पार्टी के पास यह कहने का मौका होगा कि 2014 के आम चुनावों की करारी हार बहुत पीछे छूट चुकी है. कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी 2019 में पीएम मोदी को चुनौती देने के लिए विपक्ष के केंद्रीय नेता बनकर उभरेंगे.

तीसरा मोर्चा या फेडरल फ्रंट बनाने की चाहत रखने वाले ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप 2019 में कांग्रेस के इर्द-गिर्द बुने जाने वाले ताना-बाना का हिस्‍सा बनने को मजबूर होंगे या बीजेपी को हराने के लिए उनको अपनी रणनीति बदलनी होगी क्‍योंकि कांग्रेस की विपक्ष की केंद्रीय भूमिका से इनकार करना इन नेताओं के लिए मुश्किल हो जाएगा.

दूसरा, यदि कांग्रेस को कर्नाटक विधानसभा की 224 में से सबसे ज्‍यादा सीटें मिलती हैं लेकिन अपेक्षित बहुमत(113) नहीं मिलता तो क्‍या होगा? यानी कि यदि पार्टी सरकार नहीं बना पाती और बीजेपी एवं जेडीएस मिलकर सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं तो कांग्रेस के लिए जीत की यह चमक फीकी पड़ जाएगी. हालांकि मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़ और राजस्‍थान के आने वाले चुनावों के लिहाज से पार्टी का मनोबल तो बढ़ेगा लेकिन साथ ही यह भी माना जाएगा कि गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी की हार के बाद के सियासी परिदृश्‍य को कांग्रेस अपने पक्ष में भुना नहीं पाई और गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद कई उपचुनावों में मिले उत्‍साहजनक नतीजे का लाभ उठाने में कांग्रेस विफल रही.

तीसरा, यदि कांग्रेस पिछड़कर दूसरे नंबर पर आ गई और बीजेपी अपने दम या जेडीएस के साथ सत्‍ता में आ गई तो क्‍या होगा? इस सवाल का जवाब मशहूर विश्‍लेषक और स्‍तंभकार सुरजीत एस भल्‍ला ने द इंडियन एक्‍सप्रेस में लिखे अपने कॉलम में देने का प्रयास किया है. उन्‍होंने अपने आकलन के आधार पर बताते हुए कहा है कि यदि बीजेपी को 120 सीटें मिलती हैं और कांग्रेस 70 से भी कम सीटों पर सिकुड़ जाती है तो क्‍या सियासी सीन होगा?

उनके मुताबिक कांग्रेस को अब यह लगता है कि 2014 की आम चुनाव और 2017 के यूपी चुनावों की हार का दौर बीत चुका है और माहौल बदल रहा है. राहुल गांधी भी नए अवतार में दिख रहे हैं. सो, इस हार के बाद इस नजरिये को आघात पहुंचेगा. ऐसा इसलिए क्‍योंकि तब कांग्रेस के पास केवल पंजाब(13 लोकसभा सीटें) और पुडुचेरी(1 लोकसभा सीट) बचेगा. सो इनके दम पर 2019 में किस तरह राहुल गांधी विपक्ष के केंद्रीय नेता के रूप में पीएम मोदी को चुनौती देने की दावेदारी करेंगे? इस कारण कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी को अपनी आशा-आकांक्षा और इसके साथ गांधी परिवार की लीडरशिप पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है? इस संदर्भ में उन्‍होंने अपने आर्टिकल में लिखा है कि जीत या हार किसी भी स्थिति में कर्नाटक चुनाव बीजेपी की तुलना में कांग्रेस के लिए ज्‍यादा अहमियत रखता है. इस महत्‍वपूर्ण चुनाव में सबसे खास बात यही है.

राहुल गांधी की दावेदारी
कर्नाटक में कांग्रेस के हारने की स्थिति में उसका असर कुछ इस तरह पड़ सकता है कि पार्टी के भीतर के साथ-साथ बाहर से भी 2019 में राहुल गांधी की दावेदारी पर सवाल उठ सकते हैं. ऐसा इसलिए भी क्‍योंकि कुछ समय पहले सानिया गांधी ने विपक्षी एकजुटता को साबित करने के लिए ‘डिनर डिप्‍लोमेसी’ का आयोजन किया. इसमें विपक्ष के 19 दलों के नेताओं ने शिरकत की लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने शिरकत नहीं की. इसके बजाय उन्‍होंने अपने दूत को भेजा. उसके बाद जब वह दिल्‍ली आईं तो राहुल गांधी से मिलने से गुरेज किया. हालांकि हो-हल्‍ला होने की स्थिति में सोनिया गांधी से मुलाकात की. उनके बारे में कहा जा रहा है कि वह राहुल गांधी के विपक्ष के केंद्रीय नेता की भूमिका के सवाल से बहुत सहज नहीं हैं. इस लिहाज से कर्नाटक में हार की स्थिति में ममता बनर्जी के अगले कदम पर सबकी निगाह होगी.

mamata banerjee
राजनीति के ये 5 धुरंधर अभी तक विपक्षी दल कांग्रेस की अगुआई में ही 2019 के लोकसभा चुनाव में उतरने के मूड में दिख रहे हैं.

इसके अलावा कुछ दिन पहले जब राहुल गांधी ने कहा कि वह 2019 में जीतने की स्थिति में प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं तो इस बारे में जब यूपी में उनके सहयोगी सपा नेता अखिलेश यादव से पूछा गया तो उन्‍होंने कहा कि कर्नाटक चुनाव बाद इस बारे में बात करेंगे. इसी तरह कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात करने वाली शरद पवार की एनसीपी के अगले कदम पर भी सबकी निगाहें होंगी क्‍योंकि मराठा क्षत्रप के बीजेपी और खासकर पीएम मोदी के साथ भी अच्‍छे संबंध हैं. सिर्फ इतना ही नहीं कांग्रेस के भीतर से भी गांधी परिवार के खिलाफ आवाजें उठ सकती हैं. राहुल गांधी के अध्‍यक्ष बनने के बाद कई दिग्‍गज नेताओं को उनके पद से हटाया गया है. कई प्रदेक्ष अध्‍यक्षों को बदला गया है. पार्टी में पहले ही पुरानी पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी के संघर्ष की आवाज दबे स्‍वरों में कही जाती रही है. कर्नाटक हारने की स्थिति में ये आवाजें बुलंद हो सकती हैं.

फेडरल फ्रंट
अब यह सवाल भी उठता है कि यदि राहुल गांधी विपक्ष की तरफ से केंद्रीय भूमिका में नहीं होंगे तो क्‍या होगा? इस कड़ी में तेलंगाना के मुख्‍यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ममता बनर्जीका नाम जेहन में उभरता है. राव ने बाकायदा घोषणा करते हुए कहा है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही एक सिक्‍के के दो पहलू हैं. लिहाजा क्षेत्रीय दलों को इन दोनों राष्‍ट्रीय दलों से परहेज करते हुए गैर-कांग्रेसी और गैर-बीजेपी गठबंधन बनाना चाहिए और उन्‍होंने विकल्‍प के रूप में क्षेत्रीय दलों के सहयोग से फेडरल फ्रंट बनाने की बात कही.

कांग्रेस के कमजोर होने की स्थिति में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इस संदर्भ में बीजेपी में बागी तेवर अपनाने वाले अरुण शौरी ने भी हाल में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्‍यू में कहा था कि अगले चुनाव में ऐसा लगता है कि जिस राज्‍य में जो दल मजबूत होगा, वहां वह बीजेपी को टक्‍कर देने के लिए केंद्रीय भूमिका में होगा. इन दलों का राष्‍ट्रीय स्‍वरूप क्‍या होगा, यह देखने वाली बात होगी?