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कट्टरता में फर्क और मीडिया का रवैया, हैरानी की असली वजह यही है

नीरज बधवार

दिल्ली में अंकित के मामले में जिस तरह से हत्या करने वालों के नाम छिपाए गए ये एक बार फिर मीडिया की नीयत पर सवाल खड़े करता है। मसलन, अगर आप इस डर से हत्यारों की मुस्लिम पहचान नहीं बता रहे कि ऐसा करने से हालात ख़राब हो सकते हैं, तब ये ख़्याल आपको तब भी रखना चाहिए था जब दादरी जैसी कोई घटना हो जाती है। अगर आप ये सोचकर हत्यारों की पहचान नहीं बताते कि ऐसा करने से दोनों समुदायों में कटुता बढ़ सकती है, तब वो कुटता तो उस स्थिति में भी बढ़ सकती है जब एक-आध घटना को आगे रखकर ये कह देते हैं कि पूरे देश में एक समुदाय को डराया जा रहा है। अगर साम्प्रदायिक मामलों में दोनों पक्षों की पहचान न बताना एक editorial policy है, तो ये पॉलिसी ‘हत्यारे’ बदलने पर बदल क्यूं जाती है।

जब कासगंज में चंदन गुप्ता की हत्या हुई, तो ये कहकर हत्यारों के गुनाह कम करने की कोशिश की गई कि अरे! वहां तो भड़काऊ नारे लगाए गए थे। अब सवाल ये है कि अगर किसी को भड़काने पर उसका हत्या करना जायज़ हो गया तब गुजरात दंगों से पहले गोधरा में 50 लोगों को ज़िंदा जला देना तो उसके बाद हुए दंगों के लिए बहुत बड़ी और जायज़ वजह थी। अगर ज़रा सी नारेबाज़ी पर एक पक्ष की भावनाएं इतनी भड़क सकती हैं कि वो आम आदमी होने के बावजूद किसी का कत्ल कर दें, तो सोचिए ज़रा कश्मीर में हर रोज़ सेना को क्या मुश्किल होती होगी। उसके सामने तो हर दिन हज़ारों लोग हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाते हैं, उस पर पत्थर बरसाते हैं, उन पर हमला करने वालों को पनाह देेते हैं। आपके भड़काने वाले तर्क के हिसाब से तो आर्मी को पूरी भीड़ पर हवाई फायर कर देना चाहिए। अगर धार्मिक नारा किसी की हत्या के लिए भड़काने की जायज़ वजह है तब तो देश विरोधी नारों के विरोध में होने वाली कैसी भी कार्रवाई पर सवाल उठना ही नहीं चाहिए।

बेशर्मी की बात ये है कि जो लोग कासगंज में भड़काऊ नारों को वजह बताकर हत्या का बचाव करने में लगे हैं वही लोग कश्मीर जैसे हालातों में काम करने वाली आर्मी को ज़ालिम बता देते हैं। ये कैसा तर्कशास्त्र है? दरअसल मीडिया के एक वर्ग और एक समुदाय का यही दोगलेपन है जो आज करोड़ों लोगों के गुस्से की वजह है। अगर किसी घटना में हिंदू कट्टरपंथी शामिल है तो बुद्धिजीवी उसकी आलोचना करते हैं। मीडिया उसकी पहचान बताकर आलोचना करता है और करनी भी चाहिए। मगर जैसे ही मामला उल्टा हो जाता है तो बुद्धिजीवी बड़ी चालाकी से उसे इग्नोर कर देता है। उसे लगता है कि इस पर कुछ बोला तो दूसरे पक्ष में उसकी लोकप्रियता कम हो जाएगी। इस चुप्पी में वैसी ही मक्कारी शामिल होती है जैसी करणी सेना जैसों की हरकत पर हर तरह की नेता की चुप्पी में शामिल होती है।

नेता चाहे किसी पार्टी को वो ये सोचकर नहीं बोलता कि अरे भाई, मुझे राजपुतों से वोट भी तो लेने है और बुद्धिजीवी ये सोचकर चुप रह जाता है कि कुछ बोला, तो उसकी लोकप्रियता दूसरे पक्ष में कम न हो जाए। रही बात दूसरे पक्ष की वहां जो कट्टरपंथ की किसी वारदात को गलत मानते भी हैं, तो वो इस डर से चुप रह जाते हैं कि कुछ बोले, तो हम भी तारेक फतह, तसलीना नसरीना की तरह किनारे न लगा दिए जाएं। या मार ही न दिए जाएं। दूसरा अगर अपराध धार्मिक दलीलों के आधार या धार्मिक वजह से किया गया है, तो खुद बुद्दिजीवी की हमदर्दी अपराधी के साथ ही होती है। जैसे चार्ली हेब्दो वाले मामले के बाद आई प्रतिक्रिया से सामने आया था। इस सबका परिणाम ये होता है कि मीडिया में हर बार यही चर्चा सुनाई देती है कि देश में राइटविंग कट्टरता बढ़ रही है। राहुल गांधी तक देश को सबसे बड़ा ख़तरा हिंदू आतंकवाद से बताते हैं। इस प्रोपेगेंडा का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि चंद घटनाओं को आगे रखकर पिछले 3 सालों में लगातार ये माहौल बनाया जा रहा है कि हिंदू अतिवाद बढ़ रहा है जबकि हकीकत ये है (और इसके पक्ष में आकंड़े भी हैं) कि पिछले 3 सालों में केरल से लेकर कर्नाटक तक सबसे ज़्यादा कत्ल बीजेपी और संघ से जुड़े लोगों के हुए हैं।

तो कट्टरता की आलोचना को लेकर जो ये selectivism है यही एक बड़ी तबके के गुस्से की असल वजह है। और ये selectivism अंकित से लेकर चंदन जैसों की हत्या में बार-बार निकलकर सामने आता है। फिर आप चुनावी नतीजे आने पर सिर धुनते हैं कि यार नोटबंदी को लेकर तो लोगों की इतनी नाराज़गी थी फिर भी वो यूपी में जीत क्यूं गई, जीएसटी को लेकर तो सबसे ज़्यादा और सबसे बड़े आंदोलन सूरत में हुए थे फिर भी वहां 14 में से 13 सीटें बीजेपी जीत क्यूं गई। वो इसलिए गई क्योंकि आपके इस selectivism ने विकास को मुद्दा रहने ही नहीं दिया है। अगर आप पीड़ित और आरोपी के मज़हब के हिसाब से घटनाओं को twist देते रहेंगे तो हर चुनावी नतीजे के बाद यूं ही हैरान होते रहेंगे और लोगों से पूछते रहेंगे…अरे भाई! ऐसा क्यूं हो गया।

(वरिष्ठ पत्रकार नीरज बधवार की फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं )