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एनेमी प्रॉपर्टी: अपने लोगों ने देश छोड़ा और उनकी संपत्ति ‘दुश्मन’ की हो गई?

अभिषेक रंजन सिंह

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने एनेमी प्रॉपर्टी (शत्रु संपत्तियों) को बेचने की कवायद शुरू कर दी. इसके तहत सरकार ने अपने खजाने में तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की वृद्धि करने का लक्ष्य रखा है. केंद्र सरकार ने मुख्य संरक्षण कार्यालय यानी कस्टोडियन को इस साल जून-जुलाई तक तमाम शत्रु संपत्तियों की सूची देने का आदेश दिया है.

गृह मंत्रालय के आदेश पर संबंधित जिलों में मूल्यांकन समितियां भी गठित की गई हैं जिसकी अध्यक्षता जिलाधिकारी करेंगे. यह फैसला शत्रु संपत्ति (संशोधन एवं वैधीकरण) अधिनियम 2017 और शत्रु संपत्ति (संशोधन) नियम 2018 में संशोधन के बाद उठाया गया है. पिछले साल लोकसभा में उक्त विधेयक में संशोधन के बाद यह प्रावधान किया गया है कि भारत विभाजन के समय पाकिस्तान या चीन चले गए लोगों के वंशज भारत में अपने पुरखों की संपत्तियों पर कोई दावा-दलील नहीं कर सकते.

गौरतलब है कि पाकिस्तान गए लोगों से संबंधित 9,281 शत्रु संपत्तियों में उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 4,991 संपत्तियां हैं. वहीं पश्चिम बंगाल में 2,735 और दिल्ली में 487 संपत्तियां हैं. चीन गए लोगों से जुड़े 126 शत्रु संपत्तियों में मेघालय में 57 और पश्चिम बंगाल में 29 संपत्तियां हैं. केंद्र सरकार बेशक इन संपत्तियों को बेचकर अपना खजाना भरना चाहती हों, लेकिन यह एक ऐसा मामला है जिसमें कई पेचीदगियां हैं.

पिछले वर्ष संसद में शत्रु संपत्ति कानून संशोधन विधेयक 2017 पारित होने के बाद शत्रु संपत्ति पर अपने मालिकाना हक की कानूनी लड़ाई लड़ने वालों को काफी निराशा हुई है. नए प्रावधान के बाद शत्रु संपत्ति से संबंधित कोई भी मुकदमा निचली अदालतों में दायर नहीं किया जा सकेगा. शत्रु संपत्ति पर कोई पक्ष अगर अपने उत्तराधिकार का दावा करता है, तो उसे हाईकोर्ट एवं सुप्रीम में मुकदमा करना होगा.

राज्यसभा के पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब शत्रु संपत्ति कानून में किए गए बदलाव और केंद्र सरकार के हालिया फैसले को गलत मानते हैं. उनके मुताबिक बंटवारे के समय पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान ही थे. भारत छोड़कर जाने वालों में कई लोग ऐसे भी थे, जिनके बाकी सदस्यों ने यहीं रहना पसंद किया. लिहाजा यहां रहने वाले लोगों से उनके पुरखों की जमीनें छीनना कहां की इंसानियत है?

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के लहरपुर के जमींदार ताज फारुखी का किस्सा भी रोचक है. ताज फारुखी के चाचा बंटवारे के वक्त पाकिस्तान चले गए थे. लिहाजा उनकी तमाम जमीनों को सरकार ने शत्रु संपत्ति घोषित कर जब्त कर लिया. हैरानी की बात यह है कि ताज फारुखी आज भी अपने पुरखों की जमीनों का लगान अदा कर रहे हैं. भले ही वह जमीन उनके दखल से बाहर है. पटवारी जब ताज फारुखी को भू-लगान की रसीद देते हैं, तो उसमें लिखा जाता है ताज फारुकी (शत्रु).

अपने ही देश में शत्रु की हैसियत से रहना पड़े, यह अकेले ताज फारुखी जैसे लोगों की कहानी नहीं है.

चर्चाओं में राजा महमूदाबाद की अरबों की संपत्ति

Raja Mahmudabad

राजा महमूदाबाद

भारत में जब भी शत्रु संपत्ति कानून का जिक्र होता है, तो राजा महमूदाबाद की हजारों करोड़ की संपत्तियों के बारे में चर्चाएं खूब होती हैं. राजा महमूदाबाद मोहम्मद अमीर अहमद खान दिसंबर 1957 में पाकिस्तान चले गए.

जबकि उनकी पत्नी और उनके बेटे राजा मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान भारत में रहना पसंद किया. आजादी के दस वर्षों तक राजा महमूदाबाद भारत के नागरिक थे. बाद में उन्होंने पाकिस्तान की नागरिकता ली. वह वह किन वजहों से पाकिस्तान गए, इस बारे में उनके बेटे राजा मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान का कहना है कि भारत के बंटवारे के समय पूरे देश में खून-खराबे का माहौल था. इससे परेशान हमारा परिवार समय-समय पर पाकिस्तान, ईरान, ईराक और लेबनान में रहने को मजबूर हुआ.

साल 1950 में वह अपनी मां और बहनों के साथ ईराक पहुंचे. उस वक्त उनके पिता वहीं रहते थे. उस वक्त मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान की उम्र करीब सात साल थी. हालांकि, इस दौरान राजा महमूदाबाद पाकिस्तान और भारत आते रहे. लंदन में उन्होंने इस्लामिक कल्चरल सेंटर में बतौर डायरेक्टर नौकरी भी की थी. राजा महमूदाबाद साल 1961 में वह भारत आए थे और पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी मुलाकात भी हुई थी. नेहरू जी उन्हें ‘मियां साहब’ कहते थे. नेहरू जी की मृत्यु के बाद वह फिर भारत आए और उस वक्त इंदिरा गांधी से उनकी मुलाकात हुई.

वैसे पाकिस्तान जाकर राजा महमूदाबाद खुश नहीं थे, क्योंकि वहां के हालात जिस कदर बने खासकर भारत से गए मुसलमानों के साथ गैर बराबरी हुई, उससे उन्हें काफी दुख पहुंचा. 14 अक्टूबर 1973 में लंदन में उनका इंतकाल हुआ और उन्हें इरान के मसहद में दफनाया गया.

साल 1968 में जब शत्रु संपत्ति कानून बना तो उसके प्रावधानों के मुताबिक, गृहमंत्रालय द्वारा नियुक्त कस्टोडियन ने राजा महमूदाबाद के महल में रहने वाले राजा मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान उनकी पत्नी विजया खान, उनके बेटेॊ मोहम्मद डॉ. अमीर अहमद खान और मोहम्मद अमीर हसन खान को संपत्ति का मेंटेनेंस अलाउंस देने लगा.

1973 में राजा महमूदाबाद की लंदन में मौत हो गई. उस समय उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान तब लंदन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे थे. चूंकि वह भारतीय नागरिक थे, इसलिए उन्होंने अपने पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार का दावा पेश किया. उन्होंने तमाम केंद्र सरकारों से अपनी संपत्ति लौटाने की गुहार लगाई, लेकिन इस मामले में उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली. हालांकि, 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी 25 फीसद संपत्ति लौटाने का भरोसा दिया था. लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद राजा महमूदाबाद मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान की उम्मीदें भी खत्म हो गईं.

अपने बेटों के साथ राजा साहब

अपने बेटों के साथ राजा साहब

हम नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे हैं.

केंद्र सरकार द्वारा शत्रु संपत्तियों को बेचने के फैसले को राजा महमूदाबाद मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हैं. उनके मुताबिक सरकार के इस फैसले से मुसलमान और हिंदू दोनों प्रभावित होंगे. सरकार को चाहिए कि इसे इंसाफ की रूह से देखना चाहिए न कि हिंदू और मुसलमान की रूह से. वे बताते हैं कि उनके पिता अमीर अहमद खान 1957 में पाकिस्तान चले गए. लेकिन वह और उनकी वालिदा यहीं भारत में रह गईं. बाद में उनकी जायदाद को शत्रु संपत्ति घोषित उसे कस्टोडियन के हवाले कर दिया गया.

नए कानून के मुताबिक साल 1968 के बाद जितनी भी शत्रु संपत्ति की खरीद-बिक्री हुई है, उसे रद्द कर दिया जाएगा. इस बाबत कोई पीड़ित पक्ष निचली अदालत में मुकदमा दायर नहीं कर सकता. नए शत्रु संपत्ति कानून संशोधित विधेयक के तहत अब कोई भी अपील या मुकदमा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में ही किया जा सकता है. लिहाजा गरीब आदमी जिसने दो कमरे का मकान जो शत्रु संपत्ति है खरीदा हो, वह कहां से इतना पैसा लाएगा कि वह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा करे.

फर्ज करें एक ऐसा काश्तकार जिसके पास दो-ढाई एकड़ जमीन है और वह शत्रु संपदा है खरीदी है. जरा उसकी परेशानियों का अंदाजा लगाएं. वह गरीब किसान अपने खेतों में हल चलाएगा कि हाईकोर्ट का चक्कर लगाएगा ? नए शत्रु संपत्ति कानून लागू लागू होने के बाद अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ेगा. साथ ही भूमि विवाद में इजाफा होगा, जो भविष्य में हिंसक भी हो सकता है. गौरतलब है कि राजा महमूदाबाद की 1300 अचल संपत्तियां हैं. इनमें 950 वक्फ संपत्ति है, जिनमें कई इमामबाड़े और मस्जिदें हैं. इसके अलावा 350 संपत्तियां खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में हैं. इन संपत्तियों में ज्यादातर काश्त की जमीनें और बाग-बागीचे हैं. ये तमाम संपत्तियां महमूदाबाद, लखनऊ, सीतापुर, लखीमपुर, देहरादून और नैनीताल में हैं. राजा महमूदाबाद ने सबसे पहले 1986 में लखनऊ सिविल कोर्ट में सक्सेशन एक्ट के तहत उत्तराधिकार मामला दायर किया.

उसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट में कस्टोडियन और सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया कि वह उनकी तमाम संपत्तियों को रिलीज करे. सितंबर 2001 में जस्टिस लोढ़ा व जस्टिस महात्रे की बेंच उनकी जायदाद, जिसे शत्रु संपदा घोषित कर जब्त की ली गई थी, उसे रिलीज करने का आदेश दिया. तत्कालीन केंद्र सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अशोक भान और अल्तमस कबीर की बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखते हुए उनकी संपत्तियों को रिलीज करने का आदेश सरकार को दिया.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भी केंद्र सरकार के लिए झटका था. उसके बाद यूपीए सरकार ने जुलाई 2010 में शत्रु संपत्ति कानून पर कैबिनेट से पारित एक अध्यादेश लाई. इस अध्यादेश में मुताबिक, साल 1968 से एनेमी प्रॉपर्टी से जुड़े टेम्पररी वेस्टिंग को परमानेंट वेस्टिंग करार दिया गया. केंद्र सरकार के इस ऑर्डिनेंस को राजा महमूदाबाद अमीर मोहम्मद खान ने अगस्त 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी. साल 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मुकदमे को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया. साल 2014 में केंद्र एनडीए की सरकार बनने के बाद 7 जनवरी 2016 को केंद्र सरकार ने शत्रु संपत्ति से जुड़ा एक और अध्यादेश पारित किया. इस ऑर्डिनेंस में भी वैसे ही प्रावधान थे, जिससे कि शत्रु संपत्ति पर मालिकाना हक की लड़ाई लड़ने वालों के लिए सभी रास्ते बंद हो जाएं.

Raja Mahmudabad (2)

भारत सरकार का फैसला बांग्लादेशी हिंदुओं की मुसीबत

भारत की तरह बांग्लादेश में भी ‘शत्रु संपत्ति कानून’ लागू है. साल 1971 में बांग्लादेश के अस्तित्व में आने से पहले पाकिस्तान ने एनेमी प्रॉपर्टी एक्ट लागू किया था. इस कानून से वहां रहने वाले हिंदुओं और बौद्ध अल्पसंख्यकों को अपनी काफी जमीनें और कल-कारखाने गंवाने पड़े. हालांकि, पिछले दिनों बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने शत्रु संपत्ति कानून में कुछ ऐसे संशोधन किए, जिसका लाभ वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं के मिला. बांग्लादेश सरकार ने शत्रु संपत्ति कानून में बड़ा बदलाव करते हुए इसका नाम ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ कर दिया है.

इसके पीछे सरकार की दलील है कि भारत कभी भी बांग्लादेश का शत्रु नहीं रहा है, लिहाजा शत्रु संपत्ति नाम रखने का कोई औचित्य नहीं है. लेकिन शत्रु संपत्ति के मामले में भारत सरकार का हालिया फैसला बांग्लादेश में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यकों की मुसीबत बढ़ा सकता है. विपक्षी पार्टियां प्रधानमंत्री शेख हसीना पर दबाव बढ़ा सकती हैं.

बात अगर बांग्लादेश की करें तो यहां पिछले ढाई दशकों के दौरान ‘शत्रु संपत्ति कानून’ की वजह से लाखों हिंदुओं को अपनी अचल संपत्तियों से हाथ धोना पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक, इस अधिनियम के तहत हिंदुओं के स्वामित्व वाली लगभग 20 लाख एकड़ भूमि को सरकार ने जब्त कर लिया. ‘ शत्रु संपत्ति कानून’ के शिकार वहां रहने वाले बौद्ध समुदाय के लोग भी हुए हैं. चिटगांव डिवीजन के तीन जिलों, बंदरवन, खग्राछारी और रंगमती में 22 फीसद बौद्ध समुदाय की भूमि इस कानून की आड़ में जब्त कर ली गई. इन इलाकों में 1978 में बौद्धों के पास 83 फीसद भूमि थी, जो साल 2009 में घटकर 41 फीसद रह गई है.

इस कानून के शिकार करीब 10 लाख हिंदुओं के मुकदमे अदालत में लंबित हैं. ढाका स्थित एसोशिएसन फॉर लैंड रिफॉर्म्स एंड डेवलपमेंट से जुड़े मोहम्मद मसूद खान बताते हैं कि ‘शत्रु संपदा कानून’ उन लोगों के लिए हथियार बन गई है, जिनकी नजर अल्पसंख्यकों की जमीन पर है. बेशक शेख हसीना सरकार ने इस कानून में ऐसे संशोधन किए हैं, जिसका फायदा अल्पसंख्यकों को मिलेगा. बावजूद इसके धरातल पर स्थिति बेहद खराब है. अगर सरकार इस मामले में कोई ठोस पहल नहीं करती है, तो वह दिन दूर नहीं, जब बांग्लादेश में अल्पसंख्यक पूरी तरह भूमिहीन हो जाएंगे. साल 1965 में भारत और पाकिस्तान के बाद हुए युद्ध के बाद तत्कालीन पाकिस्तान सरकार यह कानून बनाया था. इस कानून के मुताबिक, 1965 की लड़ाई के बाद जो लोग पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) छोड़कर भारत चले गए, उनकी अचल संपत्ति को सरकार ने शत्रु संपत्ति घोषित कर दी.

1971 के मुक्ति युद्ध के समय भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी हिंदुओं ने भारत में बसने का फैसला किया. ऐसा नहीं था कि उनके परिवार के सभी लोग भारत आकर बस गए थे. उनमें से कई लोगों के भाई और पिता वहीं रह गए. बांग्लादेश में रहने वाले इन पीड़ित परिवारों का कहना है कि जो संपत्ति उनके बाप-दादा के नाम पर है, अगर उनमें से कुछ लोग भारत चले गए तो उन्हें उनकी संपत्ति से क्यों बेदखल किया जा रहा है.

बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस (रिटायर्ड) सिकंदर मकबूल हक बताते हैं कि बांग्लादेश की जिला अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में ‘शत्रु संपत्ति’ से जुड़े हजारों मामले लंबित हैं. उनके मुताबिक, साल 2003 में प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ में अहम बदलाव करने का फैसला किया. बावजूद इसके बांग्लादेशी हिंदुओं को इसका पर्याप्त लाभ नहीं मिल रहा है.

बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद गुलाम रब्बानी ‘डिप्रिवेशन ऑफ हिंदू माइनॉरिटी इन बांग्लादेश लिविंग विथ वेस्टेड प्रॉपर्टी’ नामक किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘ शत्रु संपत्ति कानून’ की वजह से बांग्लादेश में रहने वाले हिंदू कितने परेशान हैं, इस बात का अनुभव मुझे तब हुआ, जब मैं 1971 में ढाका हाईकोर्ट में वकालत कर रहा था. इस सिलसिले में मेरे पास नौगांव जिला निवासी एक हिंदू परिवार का केस आया. यह तीन भाइयों से जुड़ा मामला था. 1952 में एक भाई भारत चला गया. बाकी दो भाई नौगांव में ही अपने पैतृक गांव में रह गए. स्थानीय प्रशासन ने भारत गए उस व्यक्ति के हिस्से वाली जमीन को ‘एनेमी प्रॉपर्टी’ यानी शत्रु संपत्ति घोषित कर उसे अपने कब्जे में ले लिया.

अधिकारियों ने उनकी कोई दलील नहीं सुनी, नतीजतन उसने हाईकोर्ट में केस दायर करने का फैसला किया. इस मुकदमे में उनकी जीत हुई और उसे जमीनें वापस मिल गईं. इसी तरह का एक दूसरा वाकया बोगरा जिले से संबंधित था. यहां एक हिंदू कारोबारी की राइस और सरसों तेल की मिलें थीं. जिनके नाम पर ये दोनों मिलें थीं, वे 1962 में भारत जाकर बस गए, लेकिन उनके दोनों सगे भतीजे बोगरा में ही रहने का फैसला किया. जिला प्रशासन ने इन मिलों को ‘ शत्रु संपत्ति’ घोषित कर कब्जा कर लिया.

इसके खिलाफ पीड़ित पक्ष ने हाईकोर्ट में मुकदमा किया और अंततः उसे जीत मिली. जस्टिस रब्बानी के मुताबिक, जहां इस तरह के लाखों मुकदमें अदालत में लंबित हों वहां चंद मामलों में जीत का कोई महत्व नहीं है. सरकार और न्यायपालिका को इस कानून की समीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि यह कानून न सिर्फ अमानवीय है, बल्कि असंवैधानिक भी है. जिसके शिकार यहां के अल्पसंख्यक समुदाय खासकर हिंदू हैं.