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साहित्य में  ‘ मीट ‘…!!

tarkesh ojhaतारकेश कुमार ओझा

साहित्य समारोह- उत्सव या सम्मेलन की बात होने पर मुझे लगता था इस बहाने शब्दकर्मियों  व साहित्य साधकों को उचित मंच मिलता होगा। एक ऐसा स्थान जहां बड़ी संख्या में साहित्य साधक इकट्ठे होकर साहित्य साधना पर वार्तालाप करते होंगे। छात्र जीवन में एक बड़े पुस्तक मेले में जाने का अवसर मिलने पर वहां किताबों से ज्यादा दूसरी चीजों का   प्रभाव देख मुझे कुछ मायूसी सी हुई थी। भीड़ – भाड़ और धक्का – मुक्की के चलते मेरी फिर वहां जाने की इच्छा जाती रही। हालांकि तब मैने सोचा भी नहीं था कि भविष्य में आधुनिकता के प्रभाव के चलते साहित्य सम्मेलन पूरी तरह से लिटरेरी मीट या फिर फेस्टिवल में तब्दील हो जाएगा। देश के किसी भी कोने में इस प्रकार के आयोजन होने पर अब उसे लिटरेरी मीट या फेस्टिवल के तौर ही प्रचारित किया जाता है। इससे जुड़ी खबरों में किसी ने किसी विवादास्पद हस्ती की फोटो साथ में लगी दिखती है। बताया जाता है कि देखिए इस फेस्टिवल में गुजरे जमाने की फलां अभिनेत्री किस तरह चीजों को निहार रही है। कुछ साल पहले जयपुर साहित्य उत्सव की लगातार कई दिनों तक इसलिए चर्चा होती रही क्योंकि उसमें एक खासे विवादास्पद लेखक भाग लेने वाले थे। मैं हर दिन का अखबार यह सोच कर देखता था कि उसमें उत्सव में हुई साहित्य चर्चा से जुड़ी खबरें पढ़ने को मिलेंगी। लेकिन कहां … हर दिन बस उस विवादास्पद लेखक के आने या न आने की अटकलों पर ही आधारित खबरें दिखाई देती रही। तस्वीरों में बताया जाता रहा कि किस तरह लोग बेताबी से टीवी स्कीरन पर नजरें गड़ाए हुए हैं। वे उस विवादास्पद हस्ती को कम से कम स्क्रीन पर ही देख लेना चाहते हैं। लेकिन यह भी नहीं हो सका। वे बहुचर्चित और विवादित लेखक अपने प्रशंसकों की लगातार कई दिनों तक धैर्य की प्रतीक्षा लेते रहे और अंत में बिल्कुल उसी अंदाज में कार्यक्रम से कट गए , जैसा तथाकथित बड़े लोग करते हैं। इस घटनाक्रम से मैुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि आज की हाई प्रोफाइल मानी जाने वाली नई पीढ़ी की भी साहित्य में गहरी अभिरुचि है। लेकिन शंकालु मन में सवाल कौंधा कि स्क्रीन पर नजरें किसी लेखक से रु- ब,- रू होने के लिए है या एक बहुचर्चित घटना का गवाह बनने की। लेखक को देखना – सुनना तो बहुत आसान है। लेकिन असली तड़प तो किसी न किसी सही – गलत तरीके से  चर्चित और विवादास्पद शख्सियतों को नजदीक से देखने की है। कहना मुश्किल है कि आज ऐसे आयोजनों में  कितने साहित्य साधकों को सचमुच  महत्व मिलता होगा। गुजरे जमाने के अभिनेता – अभिनेत्रियों की सहभागिता के चलते ऐसे आयोजनों का चर्चा में आना देख कोफ्त होती है।क्योंकि साहित्य चर्चा से ज्यादा जोर सेलिब्रिटीज का जमावड़ा लगवाने पर ही रहती है। भले ही उनका संबंध साहित्य से हो या नहीं ।किसी भी उचित – अनुचित वजह से विवाद और चर्चा में आया शख्स हो तो सोने में सुहागा वाली बात होती जा रही है। यह बीमारी अपने देश से निकल कर पड़ोसी देशों मं भी फैलती जा रही है। जहां ऐसे आयोजनों में सारा फोकस चर्चा में बने रहने वाली शख्सियतों पर ही नजर आता है। अभी हाल में फिल्म जगत से जुड़े एक शख्स के पड़ोसी देश द्वारा वीजा न दिए जाने का मामला सुर्खियों में रहा। वहां भी साहित्य उत्सव या लिटरेरी मीट ही होने वाला था। मामले की मीडिया में चर्चा होने और विवाद बढ़ने पर आखिरकार पड़ोसी देश को झुकना पड़ा, लेकिन मेहमान ने वहां जाने से इन्कार कर दिया। यह देख मुझे गांव की शादियां याद आने लगी। ग्रामांचलों में यह दृश्य आम है। गांव के किसी युवक की शादी की जोरदार तैयारियां चल रही है। बारात निकलने वाली है। लेकिन कोई चाचा या ताऊ मुंह फूला कर बैठे हैं कि बारात में चलने के लिए उन्हें कायदे से नहीं कहा गया। भनक लगने पर घराती उन्हें मनाने की कोशिश करता है। लेकिन ताऊजी जाने से साफ मना कर देते हैं। ऐसे मामलों के अक्सर बड़ा मुद्दा बनने पर मैं सोचता हूं कि देश के एक वर्ग की चिंताएं कितनी अलग है। उनकी चिंताओं में रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मुद्दे शामिल नहीं है। उनका सिरदर्द है कि  फलां आयोजन में अमुक हस्ती आएगा या नहीं। या फलां गायक, कलाकार या संगीतकार का  कार्यक्रम हो या नहीं।