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लोकतन्त्र पर खतरा बताने वाले देश की अस्मिता को तार तार करने में लगे

अशोक त्रिवेदी

देश में लोकतन्त्र पर खतरा बताने के लिए रोज नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही  हैं। यह परिभाषाएं गढ़ने में वह लोग लगे हुए हैं, जो देश के संविधान को मुँह जबानी याद है, कहने में किसी प्रकार की कोताही नहीं दिखाते। आज देश का लोकतन्त्र ही खतरे में नहीं है।  अपितु देश की अस्मिता को एक सोचे समझे षड़यंत्र के तहत दांव पर लगाया जा रहा है। यह लोग वही हैं जो मौके बेमौके लोकतन्त्र के खतरे में होने की बांगे लगाने लगते हैं। लोकतन्त्र की किताबी परिभाषा को छोड़िये, इसका सीधे सादे शब्दों में अर्थ होता है कि देश का बहुमत जो कहे।  हमारे देश में गणराज्य स्थापना के दिन से बहुमत का अर्थ चुनाव जीतना लगाया जाता रहा है और चुनाव जीतने के लिए संविधान की भावना को तार तार करने की तकनीकें और तरीके 1952 से ही सत्ता पर काबिज सरकारें तजबीज करती रही हैं।  उसमें चाहे मुस्लिम दलित वोटरों को लुभाकर वोट बैंक बनाने की चाल हो या फिर कोई और, मंडल का कमंडल भी अकारण नहीं फूटा, बल्कि एक सोची समझी नीति के तहत उसको सामने लाया गया। कहने का सीधा मतलब है कि देश में सदैव से सभी कुछ होता रहा, परन्तु लोकतन्त्र कभी भी खतरे में नहीं आया। हिन्दू मुस्लिम दंगे बहुतायत में हुए, हजारों लोग मारे गए।  दलितों पर भरपूर अत्याचार हुए, राजनितिक हत्याएं हुई, यानी सभी कुछ हुआ, भरपूर हुआ, जो नहीं हुआ वह यह कि लोकतन्त्र कभी खतरे में नहीं आया।

लोकतन्त्र की जड़ें लोगों से मजबूत होती हैं और लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते है।  देश में यह प्रथा 1952 से जारी है। लोगों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना, इन प्रतिनिधियों ने लोकसभा विधानसभा चलायी, पर लोकतन्त्र पर खतरा कभी नहीं आया। परन्तु 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों की घोषणा होते ही देश में लोकतन्त्र के खतरे की पौध सोची समझी रणनीति के तहत रोप दी गयी। क्योंकि इस बार देश के मतदाताओं ने उस व्यक्ति को प्रधानमन्त्री चुना, जिसे देश का विपक्ष एक अरसे से पानी पी पी कर कोस रहा था। गोधरा कांड के बाद से जिसके खिलाफ झंडा ऊँचा करने में लगा था।  देश ही नहीं विदेशों की धरती पर जा जा कर, उसे वीसा न देने का षड्यंत्र रच रहा था। देश में उसे हिन्दुत्ववादी और अन्य सम्प्रदायों के खिलाफ सिद्ध करने के लिए पूरा जोर लगा रहा था। विपक्ष मोदी व भाजपा के हिन्दुत्ववादी होने का शोर गला फाड़ फाड़ कर मचाने के बाद थक चुका था,परन्तु देश का मतदाता उसे ही अपना सिरमौर बनाने में लगा था। अतः विपक्ष ने एक नए शब्द की तलाश करनी शुरू कर दी, वह शब्द विपक्ष को ‘लोकतन्त्र पर खतरा’ के रूप में मिला। 26 मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के शपथ लेते ही इस पौध में खाद पानी डाला जाने लगा। देश ने पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता की बागडोर सौंपी थी, क्या यह देश की जनता द्वारा लोकतन्त्र को खतरे में डालने के लिए उठाया कदम था। देश के सभी राजनीतिक दल  भाजपा के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ सम्बन्धों को अच्छी तरह जानते थे। वह उनके हिन्दुत्व के एजेंडे से भी भली भांति परिचित थे। देश के लोग भी भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों को अच्छी तरह जानते समझते थे। यह सब जान समझकर उन्होंने भाजपा को सत्तानशीन किया था। यही नहीं देश के लोगों ने एक के बाद एक उन सभी राजनीतिक दलों का बोरिया बिस्तर सिमटवाना शुरू कर दिया, जिन्हें भी लोकतन्त्र का खतरे में होना नज़र आया। उसके बाद भी अनेकों राजनीतिक दल उस कांग्रेस की अगुवाई में लोकतन्त्र को खतरे से बचाने की गुहार लगा रहे हैं, जिसने 1975 से 1977 तक की 21 महीने की अवधि में डा भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखे संविधान को ही बन्धक बना लिया था, देश में आपतकाल लगाकर पूरे विपक्ष को जेल में बन्द कर दिया था।

लोकतन्त्र को खतरे में बताने की विषबेल का बीजारोपण 26 मई 2014 में नरेन्द्र मोदी द्वारा शपथ लेते समय ही कर दिया गया था। जिसे बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से एक के बाद एक प्रयोग करते हुए आगे बढ़ाया गया। विपक्ष समझ चुका था कि भाजपा और मोदी को हटाना उनके बस की बात नहीं, यह अलग अलग समय हुए विधानसभा चुनावों से और स्पष्ट होता चला गया। भाजपा और मोदी की विजय पताका लोकतन्त्र के प्रहरी वोटर लगातार ऊँची और ऊँची करते रहे, जिसके कारण विपक्ष हिन्दुत्व के उस मुद्दे को हाशिये पर न सिर्फ छोड़ता गया, जिससे नफरत करने का उसका पिछले साठ साल का इतिहास है। बल्कि उसे स्वयं अपनाता भी गया। लिहाजा विपक्ष ने लोकतन्त्र को खतरे में बताने के लिए जो खेल खेला, उसने देश के लिए शर्मनाक इतिहास लिख दिया है, आगे भी इसमें अनेकों अधिक शर्मनाक अध्याय जुड़ने शेष हैं।  आज लोकतन्त्र के खतरे में होने की बात किनारे हो गयी है। देश की अस्मिता पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। आज विपक्ष को देश के दुश्मनों से देश की संवैधानिक सरकार को अपदस्थ करने के लिए मदद मांगने में न तो कोई संकोच है, न ही कोई शर्म, देश के लोगों को देश की अस्मिता को तार तार करने के लिए खेले जा रहे विपक्ष के इस खेल को समझना होगा। देश की अस्मिता को खतरे में डालने के लिए कोई और नहीं, देश के सबसे बडा विपक्षी और पुराना दल काँग्रेस उन्ही वामपंथिओं के साथ मिलकर बीड़ा उठा रहा है। जो अफजल की फांसी पर शर्मिन्दा हैं, देश के टुकड़े टुकड़े करने की ख्वाहिश पाले हुए हैं ।

भाजपा और मोदी के सत्ता ग्रहण करते ही काँग्रेस के पेट में कुछ इस तरह की अपच हुई कि उन्होंने अपने प्यादे मणिशंकर अय्यर को 17 नवंबर 2015 को  पाकिस्तान भेज दिया। जिसने वहां जाकर पाकिस्तान की हुकूमत से नरेन्द्र मोदी और भाजपा को उखाड़ने में मदद करने की गुहार लगाई । पाकिस्तान से देश की संवैधानिक सरकार को अपदस्थ करने की मांग करना, लोकतन्त्र के किस झंडे को ऊँचा करना है, यह बात राहुल गाँधी से बेहतर कौन बता सकता है। पाकिस्तान मोदी को अपदस्थ करने में कांग्रेस की मदद किस तरह करेगा। भारत पर आक्रमण करके या फिर कश्मीर में अपनी आतंकी गतिविधियों को अधिक तेज करके। मोदी के रहते पाकिस्तान भारत पर आक्रमण करने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता। हाँ, वह कश्मीर में अपनी आतंकी गतिविधियां जरूर बढ़ा सकता है।  वही उसने किया, परन्तु मोदी की आतंकवाद के विरुद्ध कठोर नीति के चलते जब कश्मीर से आतंक की ही सफाई होने लगी, तो पाकिस्तानी आतंकवादियों के समर्थन में कांग्रेस सामने आने लगी, उसने कश्मीर के सुधरते हुए हालातों को बदतर होने का रोना रोया, उसके पदाधिकारियों ने कश्मीर में सफल सैन्य अभियान  संचालन करने वाले भारतीय सेनाध्यक्ष को सड़क का गुंडा तक कह डाला। पिछले साठ सालों के शासन में कश्मीर पर ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली काँग्रेस यदि कश्मीर के विषय में पहले इतनी चिन्तित होती,जितना आज दिख रही है , तो न जाने कब का कश्मीर समस्या का समाधान निकल चुका होता।    यह सब मोदी सरकार के खिलाफ सोची समझी साजिश थी।

उसके बाद कांग्रेस– वाम समर्थित तथाकथित बुद्धिजीवियों के दल को मैदान में उतारा गया, उसने कलबुर्गी एवं अख़लाक़ की 2015 में हुई हत्याओं को लोकतन्त्र पर खतरा बताते हुए अपने पुरस्कार लौटाने का नाटक खेला,मजे की बात यह कि राजनीतिक खिलौना बने तथाकथित बुद्धिजीवी इस बुनियादी बात को भी भूल गए कि कानून का पालन राज्य की समस्या होती है, न कि केन्द्र सरकार की, दोनों ही हत्यायें उन राज्यों में हुई थी, जिनमें भाजपा का शासन था ही नहीं, एक में कांग्रेस एवं दूसरे में समाजवादी पार्टी का शासन था। फिर इन लोगों ने इन हत्याओं के लिए मोदी सरकार को कैसे जिम्मेदार मान लिया। राजनीतिक हत्यायें देश के इतिहास में नई नहीं थी, हमेशा से होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी। पिछले 17 वर्षों में केरला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 160 स्वयंसेवकों को मौत के घाट उतारा जा चुका है, कर्नाटक में पिछले दो वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 12स्वयंसेवक मारे जा चुके हैं। जिनका किसी ने कभी जिक्र भी नहीं किया। क्या लोकतन्त्र किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के व्यक्ति के मारे जाने से ही खतरे में आता है। देश का मतदाता विपक्षी दलों से यह जवाब मांग रहा है।  क्योंकि विपक्ष इसका जवाब दे नहीं पा रहा है। अतः लोकतन्त्र का मजबूत प्रहरी मतदाता उसे देश की राजनीती में समेटता जा रहा है। लोकतन्त्र के मजबूत पाए मतदाता को बेवकूफ मानकर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने देश के मतदाता को बरगलाने की जो कोशिश की उसका जवाब मतदाता ने उनको बैरंग लौटा कर दे दिया।

लोकतन्त्र की दुहाई देने का एक और कोरस गाने का अवसर कांग्रेस– वाम समर्थित विपक्ष को 17 जनवरी 2016 को मिला जब हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली।  दुःखद विषय था, परन्तु कांग्रेस को तो लोकतन्त्र पर खतरे की चिन्ता अधिक थी। अतः वह अन्य राजनीतिक दलों के साथ मिलकर दलित आत्महत्या को लोकतन्त्र पर खतरा बताकर छाती पीटने लगी।  इस बार भी वह इस बात को भूल गई कि न तो तेलंगाना में भाजपा का शासन है और न ही रोहित वेमुला तेलंगना सरकार के उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार दलित।

काँग्रेस मोदी व भाजपा के विरोध में अपने लोकतन्त्र के खतरे वाले शिगूफे को फेल होता देख और भाजपा की जनता में लगातार बढ़ती पैठ से कुछ इस तरह पगला गयी कि इसके बाद फरवरी 2016 में जेनयू में संसद पर हमला करने के दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करने वालों को गले लगाने के लिए, राहुल गाँधी खुद पहुँच गए और भारत तेरे टुकड़े होंगे, कश्मीर की आजादी के नारे लगाने वालों को किस लोकतन्त्र को बचाने के लिए समर्थन दे आये, देश उनसे जानना चाहता है । जब देश चीन के साथ डोकलाम विवाद में उलझा था, राहुल लोकतन्त्र को बचाने के लिए चीन के राजदूत से मदद मांगने चुपचाप पहुँच गए थे। देश में किसी भी दुर्घटना पर भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर हिन्दुत्व विरोध के इनके नाटक को देश जान समझ चुका है। देश भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी जनता समझता है, इसीलिए गुजरात और हिमांचल के चुनावों में उसने उनके हाथों में सत्ता सौंपी जिसके हाथों में लोकतन्त्र सुरक्षित रहेगा।

लोकतन्त्र को खतरे में बताने का अंतिम प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों की पत्रकार परिषद के रूप  में सामने आया। लोकतन्त्र के तीनों स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता में अपनी ताकत और भाग्य आजमाने के बाद, लोकतन्त्र के चौथे स्वतन्त्र स्तम्भ न्यायपालिका पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से भी विपक्ष बाज नहीं आया। विपक्ष ने लोकतन्त्र को बचाने के लिए नहीं बल्कि उसकी जड़ें खोदने की राजनीति सुप्रीम कोर्ट जजों के मामले में कर डाली। देश को आज भी सीपीआई के डी राजा का जस्टिस चेलमेश्वर के घर पत्रकार परिषद के तुरन्त बाद पहुँचने की घटना को भूला नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चार जजों का समर्थन करना, बाकी 21 जजों को अक्षम मान लेना, लोकतन्त्र को किस तरह मजबूत करता है।  लोकतन्त्र जो मोदी सरकार के खिलाफ तीन वर्षों तक विपक्ष के लगातार छाती पीटने के बाद भी कमजोर नहीं बल्कि मजबूत होकर उभरा है। उस समय वाकई कमजोर नजर आया जब लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ के आधार न्यायपालिका के चार वरिष्ठ जज, पत्रकार परिषद के दौरान अपने 21 साथी जजों पर जाने अनजाने कमजोर और अक्षम होने का आरोप लगा बैठे और काँग्रेस समर्थित विपक्ष अन्य जजों को अपरिपक्व और अक्षम मानते हुए, इन चार जजों के सुर में सुर मिला बैठा।

लोकतन्त्र के चौथे सबसे मजबूत स्तम्भ न्यायपालिका को अपनी शक्ति के लिए किसी राजनीतिक लाठी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। यह ताकत भारत के संविधान से उसको अपने आप मिलती है। अतः सत्ता पक्ष और विपक्ष को शान्त होकर जहां खेल देखना था, मोदी व भाजपा विरोध की ग्रन्थि से ग्रसित विपक्ष ने लोकतन्त्र के खतरे की बात कान में पड़ते ही उसे लपक कर, लोकतन्त्र को वास्तव में खतरे में डाल दिया। इस खेल में लोकतन्त्र को बचाने का पूरा श्रेय मुख्य न्यायधीश को जाता है, जिन्होंने अपने 21 जजों की अस्मिता, परिपक्वता और सक्षमता पर उनके ही साथियों द्वारा प्रश्नचिन्ह लगाने के बाद भी, न तो प्रेस के सामने मुहं खोला, न ही प्रधानमन्त्री के मुख्य सचिव नृपेन मिश्रा से कोई बात की। देश कैसे भूलेगा कि आने वाले 3 या 4 सालों में भारत का मुख्य न्यायधीश वह बनेगा, जिस पर आज सरे आम उसकी अस्मिता, परिपक्वता और सक्षमता पर उसके साथी, राजनीतिक दल और अन्य लोग प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।

आज बात लोकतन्त्र के खतरे की नहीं, बल्कि देश की अस्मिता के खतरे की है। लोकतन्त्र देश की जनता के मजबूत हाथों में है। वह जानती है कि लोकतन्त्र को कैसे बचाया जाता है। इस सम्बन्ध में कई प्रयोग पिछले साठ सालों में देश की जनता कर चुकी है। बात आज देश की अस्मिता की  है। देश के विपक्षी दल विशेषकर कांग्रेस आज उस मोदी और भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए देश के दुश्मनों पाकिस्तान व चीन से मदद मांग कर देश की अस्मिता को पावों तले कुचल रही है।  जिसे देश के मतदाता ने संवैधानिक तरीके से उसके रंग और ढंग को जानते समझते हुये चुना है। अतः देश को आज लोकतन्त्र पर आये खतरे से नहीं बल्कि देश की अस्मिता पर आये खतरे से निपटना है।