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लालू प्रसाद के वफादार नेताओं का विश्वास जीतने में तेजस्वी नाकाम रहे हैं!

प्रवीन बागी 

आरजेडी के 5 एमएलसी का जेडीयू में शामिल होना और पार्टी के सीनियर उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह का पद से इस्तीफा, तेजस्वी यादव के नेतृत्व के लिए के लिए बड़ी चुनौती है।आरजेडी में अभी भी वरिष्ठ नेताओं का ऐसा एक वर्ग है जो तेजस्वी को नेता के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा है। लालू प्रसाद के वफादार रहे इन नेताओं का विश्वास जीतने में तेजस्वी नाकाम रहे हैं। तेजस्वी और वरिष्ठ नेताओं के बीच तालमेल न बैठ पाने की एक वजह पीढ़ी का फासला भी है। दबे स्वर में ही सही लेकिन परिवार के अंदर से भी तेजस्वी के विरोध की खबरें आती रहती हैं।

अक्टूबर में बिहार विधानसभा का चुनाव होना है। इस दलबदल का असर चुनाव पर पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। पिछले सप्ताह ही जेडीयू के पूर्व एमएलसी जावेद इकबाल अंसारी आरजेडी में शामिल हुए थे। एक पूर्व के बदले 5 मौजूदा एमएलसी का दलबदल कराकर जेडीयू ने आरजेडी को जवाब दिया है।
इसका तात्कालिक परिणाम यह यह हुआ है कि विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी जानी तय है। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी परिषद् में विपक्ष की नेता हैं। 75 सदस्यीय सदन में प्रतिपक्ष का नेता बनने के लिए कम से कम 8 सदस्यों का साथ जरुरी है। आरजेडी के पास अब सिर्फ तीन सदस्य हैं। आरजेडी के लिए यह एक और झटका होगा।

दल -बदल का खेल अभी शुरू हुआ है। यह विधानसभा चुनाव के टिकट के बंटवारे तक चलेगा। दल -बदल दोनों तरफ से होंगे।


जेडीयू के पाले में गए आरजेडी के एमएलसी पहले से जेडीयू के संपर्क में थे। उचित समय की प्रतीक्षा थी। अभी परिषद् का चुनाव होना है। इससे उचित समय दूसरा नहीं हो सकता था। इससे आरजेडी पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा। उसके समर्थक हतोत्साहित हो सकते हैं।

रघुवंश प्रसाद सिंह का मामला दूसरा है। उन्होंने पार्टी नहीं सिर्फ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद छोड़ा है। रामा सिंह को आरजेडी में लिए जाने की खबर से वे नाराज हैं। रामा सिंह उनके प्रतिद्वंदी रहे हैं। दोनों वैशाली के हैं। रघुवंश सिंह खरी -खरी बोलने के लिए जाने जाते हैं। वे लालू -राबड़ी को भी खरी -खरी सुना दिया करते थे। इसीलिए लालू उन्हें ब्रहमबाबा कहा करते थे। वे कितने भी नाराज होते थे लालू एक बार उन्हें काहे खिसीआइल बानी ब्रहम बाबा कहते थे तो उनकी सारी नाराजगी दूर हो जाती थी। लेकिन लालू प्रसाद अभी जेल में हैं और तेजस्वी लालू नहीं बन सकते।

यह तेजस्वी के नेतृत्व की अग्निपरीक्षा है। बेशक एक सशक्त और वाकपटु नेता के रुप में उन्होंने खुद को स्थापित कर लिया है ,लेकिन इस चुनौती से वे कैसे निपटते हैं यह देखना दिलचस्प होगा।