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यूपी में चुनाव अब किस मोड़ पर पहुंच गया है, किसका पलड़ा भारी है?

धर्मेंद्र कुमार सिंह

चुनाव विश्लेषक

उत्तरप्रदेश में पहले चरण चरण का मतदान खत्म हो गया है, अब दूसरे चरण का मतदान है लेकिन सवाल एक ही है उत्तरप्रदेश में क्या होगा, किसकी होगी जीत और किसकी होगी हार. चुनाव के पहले कहना बड़ा आसान था कि फलां पार्टी की सरकार बनेगी लेकिन पहले चरण के मतदान से ही राजनीतिक विश्लेषक से लेकर चुनाव विश्लेषक सिर खुजलाने को मजबूर हो गये हैं.

उत्तरप्रदेश की राजनीति की चक्करघिन्नी में जमकर माथापच्ची चल रही है कि मुस्लिम वोट बंट रहा है. मुस्लिम वोट का बंटना मतलब यूपी में धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण नहीं हो रहा है. मुस्लिम वोट के बंटने का मतलब सभी पार्टियों का गणित फेल हो रहा है ऐसी स्थिति में सपा और बसपा का गणित खराब हो गया है वहीं जाट वोट बंटने से भी बीजेपी की केमिस्ट्री बिगड़ गई है. ये भी बात दिख रही है कि किसी पार्टी के पक्ष में हवा नहीं है ऐसी स्थिति में नतीजे चौंकानेवाले हो सकते हैं वो किसी भी पक्ष में जा सकते हैं.

खासकर त्रिकोणीय मुकाबला होने की वजह से चुनाव बेहद रोचक हो गया है. पहले बात अखिलेश यादव की.

अखिलेश का दम क्या है?
पहले अखिलेश यादव का पलड़ा भारी दिख रहा था वजह थी कि सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन, अखिलेश का चेहरा और उनका कामकाज भी बेहतर है. सरकार की छवि नकरात्मक नहीं है वहीं उनपर भ्रष्ट्राचार के भी आरोप नहीं लगे हैं. कानून-व्यवस्था के सवाल पर वो विपक्षी पार्टियों के निशाने पर रहते हैं लेकिन उनकी छवि और कामकाज की वजह से फ्लोटिंग वोट उनके पक्ष में जा सकते हैं. जीतने के लिए सिर्फ कामकाज, गठबंधन और चेहरा ही महत्वपूर्ण नहीं होता है क्योंकि जीत का रास्ता धर्म और जाति की राजनीति यूपी में पतली गली से निकलती है.

यूपी की राजनीति समझने से पहले ये समझने की जरूरत है कि मोदी के विकास और कामकाज से मुस्लिम-यादव और दलित जाति के वोटरों को कोई खास मतलब नहीं है, अखिलेश के विकास और कामकाज दलित और अगड़ी जातियों के वोटरों को दिल नहीं जीत सकता है वहीं मायावती का चुस्त-दुरुस्त कानून-व्यवस्था यादव जाति और अगड़ी जाति का पैमाना नहीं है यानि सारा पैमाना जाति-धर्म के धर्म में फंसकर रह जाता है.

जहां अखिलेश का जनाधार यादव जाति के भरोसे टिका हुआ है. सपा टिकट बंटवारे में यादव, मुस्लिम और ठाकुर जाति पर खास ध्यान देती है जबकि रिजर्व सीटों पर दलितों को टिकट देना सभी पार्टियों की मजबूरी है.

किसने अखिलेश का खेल खराब किया?
अगर मुस्लिम वोट अखिलेश के समर्थन में उतर जाए तो वो दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन मायावती ने अखिलेश का खेल खराब कर दिया है. मायावती ने इस बार 100 मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारकर मुस्लिम वोट में सेंध लगा चुकी हैं. टिकट बंटवारे में सपा-कांग्रेस बीएसपी से काफी पीछे हैं. सपा-कांग्रेस ने बीएसपी के 100 मुस्लिम उम्मीदवार के मुकाबले सिर्फ 72 उम्मीदवार उतारे हैं.

अब सबसे बड़ा सवाल है कि वो कितना मुस्लिम वोट में सेंध लगाती हैं. मायावती के समर्थन में मुस्लिम संगठन और मुस्लिम नेता भी उतर चुके हैं और अखिलेश मुलायम की तरह मुस्लिम कार्ड नहीं खेल पा रहे हैं. चूंकि वो अपनी छवि मुलायम की तरह नहीं बनाना चाहते हैं.

मायावती का जनाधार अखिलेश के जनाधार से मजूबत है. अखिलेश के पक्ष में एकमुश्त यादव जाति हैं जिसकी संख्या यूपी में 10 से 11 फीसदी मानी जाती है वहीं मायावती के पक्ष में 21 फीसदी दलित जाति है. मायावती के बारे में कहा जाता है कि कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखने में आगे हैं वहीं टिकट बंटवारे में मायावती ने फूंक-फूंक कदम रखा है.

कहां है मायावती की नजर?
मायावती ने टिकट बंटवारे में मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण को खास तवोज्जह दी है. खासकर 2007 से ही टिकट बंटवारे पर खास ध्यान देती आ रही है यही वजह रही कि इसी फॉर्मूले के तहत 2007 में चुनाव जीत गई थी. मायावती ब्राह्मण जाति को महत्व देती हैं तो सपा ठाकुर वोटरों को लुभावने का काम करती है. मायावती ने इस बार भी टिकट बंटवारे में बड़ी चालकी की है. जिस सीट पर जिस जाति का दबदबा है उस जाति को टिकट देने का काम किया है. पिछले चुनाव में जो उम्मीदवार हार गये थे उसे टिकट देने में इसबार कोताही बरती गई है. यही नहीं दूसरी पार्टी की तरह अंदरुनी झगड़ा और विरोध भी नहीं है. इस बार वो मीडिया और सोशल मीडिया पर खास ध्यान दे रही हैं और खुद छोटे से बड़े मुद्दे पर अब बयान देने से नहीं हिचकती हैं. एक बात और ये है कि मायावती के वोटर साइलेंट है. उनकी चाल चुनाव के पहले पता नहीं चलता है बल्कि चुनाव के बाद ही पता चलता है.

बीजेपी की कमजोरी
अब बात बीजेपी की. बीजेपी की सबसे कमजोरी ये है कि अखिलेश-मायावती के चेहरे के सामने राज्य में बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं है. यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी को ही बड़ा चेहरा बना दिया गया है. वहीं बीजेपी के जनाधार की रीढ़ है अगड़ी जाति का समर्थन वहीं यादव छोड़कर पिछड़ी जातियों में बीजेपी की अच्छी पकड़ है. राज्य की आधी आबादी दलित-यादव और मुस्लिम खुले तौर पर सपा-बीएसपी के समर्थन में रहती है वहीं आधी आबादी पर बीजेपी की नजर रहती है.

बीजेपी टिकट बंटवारे में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया वहीं यादव जाति के मुकाबले दूसरी पिछड़ी जाति को ज्यादा टिकट देती है. यही वजह रही कि 2014 के लोकसभा में बीजेपी गठबंधन को करीब 43 फीसदी वोट मिले थे. बीजेपी ने बड़ी चालाकी की है कि पिछड़ी जाति के सबसे बड़े नेता को अपनी तरफ जोड़ लिया है. वैसे तो यादव छोड़कर दूसरी पिछड़ी जातियों के नेताओं की फौज बीजेपी के पास है वहीं स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में जोड़ लिया गया है. पटेल जाति की नेता अनुप्रिया पटेल पहले से ही बीजेपी के साथ हैं वहीं लोध जाति का झुकाव भी बीजेपी की तरह रहा है. टिकट बंटवारे को लेकर अपने ही कार्यकर्ता पार्टी से नाराज है क्योंकि दूसरी पार्टी से लाए गये नेताओं को तरजीह दी गई है. 2002 से लगातार पार्टी विधानसभा का चुनाव हारती आ रही थी और कई जगहों पर संगठन कमजोर हो गया था. पार्टी को मजबूत करने के लिए दूसरे पार्टियों के नेताओं पर भी ध्यान दिया गया.

सबसे बड़ी बात ये है नोटबंदी के बाद यूपी में पहला चुनाव हो रहा है और कहा जा रहा है कि नोटबंदी से जहां गरीब खुश है वहीं व्यापारी, बड़े किसान और अमीर वोटर नाराज हैं. ये भी देखा गया कि नोटबंदी के बाद जहां पर बीजेपी की वजूद है वहां पर नोटबंदी के बाद हुए चुनाव में पार्टी को फायदा हुआ है यही गणित सारे गणित को डगमगा रहा है.

सबसे बड़ी बात ये है कि इस बार उत्तरप्रदेश में एक चमत्कार ये होने की उम्मीद है जो भी पार्टी 31 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करती है उसे बहुमत मिलने की उम्मीद है जैसा कि 2014 लोकसभा चुनाव में हुआ था.

अब वोटों के बंदरबांट में किसको कितना हिस्सा मिलता है और कौन बाजी मारता है इसके लिए 11 मार्च का इंतजार करना पड़ेगा

धर्मेन्द्र कुमार सिंह, चुनाव विश्लेषक और ब्रांड मोदी का तिलिस्म के लेखक हैं. इनसे ट्विटर पर जुड़ने के लिए @dharmendra135 पर क्लिक करें. फेसबुक पर जुड़ने के लिए इसपर क्लिक करें. https://www.facebook.com/dharmendra.singh.98434