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यूपी का ताज अब किसके सिर !

राहुल कुमार गुप्ता
यूपी के इस चुनावी महासमर में किसके सिर जीत का सेहरा बंधेगा, इस विषय पर किसी भी राजनीतिक भविष्यवेत्ता की भविष्यवाणी भी पूरी तरह से सटीक होने से कतरा रही है। हकीकत तो यह है कि बहुत उलटफेर है इस बार के चुनाव में
कोई भी राजनीतिक दल पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है और न ही पांच साल में दो-तीन बार पूजा जाने वाला लोकतंत्र का देवता। यह कहावत “राजनीति का ऊँट किस करवट बैठेगा” इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा में साफ-साफ चरित्रार्थ हो रही है। लगभग दो दशकों से उत्तर प्रदेश के दो बड़े दलों सपा और बसपा के बीच एक देशव्यापी राष्ट्रीय दल जो केन्द्रीय सत्ता में
विद्यमान है वह भी मजबूती से दावा ठोंक रहा है। आखिर क्यों न ठोंके इसी उत्तर प्रदेश ने ऐतिहासिक रिकार्ड के साथ सन 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में 74 सीटें भारतीय जनता पार्टी को दिया है। लेकिन तब देश में एक नया ब्रांड नये तरह के प्रचार-प्रसार नये तरह के वादे और यूपीए-2 के शासन से त्रस्त जनता ने पूर्ण परिवर्तन लाकर रख दिया। लेकिन बीजेपी के घोषणापत्र और वादें सब हवा-हवाई हो गये बस हर रोज मुद्दे बदलते रहे आमजन को तकलीफें तो थी ही पर वह तब भी आश्वस्त था कि विधानसभा में भी इस बार कमल खिलायेंगे। किन्तु अव्यवस्थित तरीके से नोटबंदी के फैसले ने आमजनों की
कमर तोड़कर रख दी। एक तरह से आर्थिक आपातकाल लोगों पर मढ़ दिया गया कई तरह के वादे कर। लोगों ने स्वीकार भी किया लेकिन हकीकत में हर वादे केवल छलावा निकले। एक मुद्दा फ्लाप तो दूसरा, दूसरा हुआ तो तीसरा, तीसरा तो…। लेकिन सोशल मीडिया में दो कौमों को लड़ाने का कार्य भी सुनियोजित ढंग से किया जाता रहा है किया जा रहा है जिससे देश में दहशत का माहौल तो है ही लेकिन इसका फायदा भी चुनावी समर में उन्हें जरूर मिलेगा। कुछ लोग अभी और इंतजार कर रहे हैं कि शायद अच्छे दिन आयेंगे। और उनके पास विकल्प भी कोई नहीं है राष्ट्रीय स्तर पर। लेकिन प्रदेश स्तर पर क्षेत्रीय दल
चुनौती बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश में मौजूदा सत्तादल ने प्रदेश में किये विकास को भुनाने के लिये साफ-सुथरी छवि के मुख्यमंत्री अखिलेश को ब्रांड बनाया है। सपा में हुई उथल-पथल शायद इसलिये थी कि अभी तक जो बैडविल साढ़े चार मुख्यमंत्री की थी उसे दूर किया जा सके। कानून अव्यवस्था भी इस सरकार में एक खामी के रूप में शुरूआती दौर में विद्यमान थी वह भी दूर हो सके इसलिये साफ छवि के लोगों को पार्टी में जगह दी गयी व विधानसभा के टिकट दिये गये । सपा में मचा दंगल शायद जनता को यही समझाने के लिये था कि युवा मुख्यमंत्री अब अपने निर्णय स्वंय ले सकते हैं और अबकि बार जो सपा आयेगी
उसमें खामियाँ नहीं होंगी। इस सरकार में विकास तो जमीनी तौर पर हुआ ही है विरोधियों के साथ लोग भी मानते हैं। सपा मुखिया बने अखिलेश, संगठन में भी साफ-सुथरी और ईमानदार छवि वाले लोगों को अहमियत देकर यह साबित करने में
लगे हैं कि देश की सबसे बेहतर सरकार अब वही दे सकेंगे। पिछड़ों को एकजुट करने के उद्देश्य से प्रदेश अध्यक्ष का पद नरेश चन्द्र उत्तम पटेल को दिया गया। यह तोहफा उनके स्वभाव के लिये मिला। प्रदेश में आमजनों के बीच वो कट्टर समाजवादी, ईमानदार, कर्त्व्यनिष्ठता छवि वाले और सबसे खास बात उनके अंदर पद लोलुपता का न होना ही उनको नेताजी व मुख्यमंत्री के करीब ले गया। पिछड़ों में उनकी बेहतर पकड़ सपा को जरूर फायदा देगी। उत्तर प्रदेश अभी भी पूरी तरह से जातिवाद से उभर नहीं सका। चुनाव में जातियाँ यहाँ अहम भूमिका निभाती हैं। जिसके चलते सभी दल जातियों के समीकरण भी प्राथमिक रूप से फिट करने में लगे हैं। उधर बसपा भी अपने तरफ से किसी भी कमी को इस चुनाव में अपनी जीत की राह में रुकावट बनने नहीं देखना चाहती। अर्जुन की तरह उसको भी चिड़िया की आँख ही दिख रही है और वह उस पर ही फोकस डालना चाह
रही है। क्योंकि उसके पास उसका खुद का आधार वोट है ही साथ में अगर मुस्लिम भी पूरी तरह से बसपा के पक्ष में वोट कर जायें तो बसपा की फिर से बल्ले-बल्ले हो जायें। हर सभाओं व प्रेस कान्फ्रेंस में मुस्लिम वोटरों को ही आगाह किया जाता है, डराया जाता है कि बसपा ही बीजेपी को टक्कर दे रही है अपना वोट बसपा में डालें और जगह डालेंगें तो वोट बर्बाद होगा।
बसपा से अतिपिछड़ों का मोह लगभग भंग ही हो चुका है अतिपिछड़ों का कोई बड़ा नेता अब बसपा में नहीं है। लगभग पचास प्रतिशत सवर्ण भी बीजेपी के साथ लामबंद नजर आ रहा है और बाकी का बिखरा हुआ है। इसलिये बसपा को इस समय
केवल मुस्लिमों का सहारा है। जबकि अपने शासन में शायद ही मुस्लिमों के हित के लिये कोई योजना शुरू की गयी हो जितनी सपा सरकार में हुई हैं. अतः मुस्लिमों को लुभाने में शायद ही बसपा कामयाब हो। हाँ!  उन सीटों पर बसपा को मुस्लिम वोटों का लाभ जरूर मिलेगा जहाँ वह बीजेपी से सीधे टक्कर ले रही होगी। लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन के चलते यह लाभ भी अब कम ही सीटों पर मिल पायेगा। ऐसे में अब बसपा को एक मजबूत सहारा उसके पुराने वफादार साबित हो सकते हैं। अतिपिछड़ा और दलित गठजोड़ ही अब बसपा को सही मायने में मजबूती दे सकता है। न्यूज चैनलों द्वारा किये गये चुनावी सर्वे केवल इसी मायने तक ही सही हैं जबतक कि कोई अप्रत्याशित बात नहीं हो जाती यानि की बसपा यदि अतिपिछड़ों पर फोकस करेगी तो हो सकता है वह तीसरी पार्टी नहीं बल्कि पहले व दूसरे पर सपा के साथ सीधा टक्कर ले। अभी सपा-कांग्रेस गठबंधन ही बीजेपी से सीधे टक्कर ले रहा है।