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बुद्ध की खोज….

ashit mishraअसित कुमार मिश्र

बुद्ध पूर्णिमा है आज।सच कहूं तो बुद्ध तक जाने की असफल कोशिश करता ही रहता हूँ। लेकिन सुना है बहुत मोटी-मोटी किताबें पढनी होती हैं त्रिपिटक गेरुआ वस्त्र और पालि जैसी कठिन भाषा….। सोचा तो था कि कुछ लिखूंगा आज ‘सर्वात्मवाद’ पर जिससे बुद्ध तक पहुंचना आसान हो जाए।
लेकिन एक ऐसी फोटो पर नज़र पड़ गई जिसमें एक रिक्शे वाले का पहिया एक ट्रैफिक पुलिस पंचर कर रहा है। रिक्शा वाला रांग साईड होगा या ओवर लोड। चेहरे पर दुख और करुणा लिए रिक्शावाला सिपाही जी को रोक रहा है…. सच बताऊँ नहीं देखना चाहता हूं मैं ऐसी तस्वीरें। मेरी आंखें खराब हैं शायद, ऐसी फोटो देखते ही इसका प्रतिबिंब सीधे दिल पर बनने लगता है।
बड़ा सीधा सा नाम रखा होगा इसकी मां ने गोबरधन- धनीराम – गनेस टाईप।
यही गोबरधन जब फुटपाथ के किनारे बिकने वाले अस्सी रूपये के नाॅयलान की लोअर और साठ रूपये के टीशर्ट पहन कर निकलता होगा तो इसके जवान अरमान मचलने लगते होंगे, और यह माथे पर सस्तहवे रुमाल की पट्टी बांध कर सलमान खान बन जाता होगा।उसके प्लास्टिक वाले चप्पल रिक्शे के पैडल को जोर से धकेलते होंगे मंजिल की ओर, तब जाकर उतरने वाला कसमसाते हुए दस का पुराना नोट उसके सख्त हाथों पर इस सूत्र वाक्य के साथ धरता होगा कि- अरे ये हरामी हैं साले!
कभी कभी काॅलेजिएट लड़कियां भी बैठ जाती होंगी रिक्शे पर। तब इसी रिक्शे वाले की चार आंखे बन जाती होंगी दो सामने और दो पीछे।उधर पीछे बैठी हुई लड़की के कोमल हाथ बड़ी अदा से नाजुक बालों की लट को घुमा कर कान के पीछे पहुंचा देते होंगे, इधर रिक्शे वाला भी अपने रुखे बालों को सख्त हाथों से संवार कर दो मिनट वाला अजय देवगन बन जाता होगा। उतरते ही लड़की दस रुपये के बजाय पांच का सिक्का हाथ पर धर देती होगी और रिक्शे वाला बिना कुछ कहे मुस्कुरा कर रख लेता होगा। आखिर दिल भी तो कोई चीज़ है।
कभी कभी दो सवारियों के साथ एक बच्चे को भी पीछे बैठाना होता होगा इसे आखिर पेट भी तो कोई चीज है खाली दिल से तो पान का दुकान तक नहीं खुलता।
लेकिन अगले चौराहे पर किसी ट्रैफिक पुलिस को देखते ही इसके अंदर का अजय देवगन अंतर्ध्यान हो जाता होगा। और इसके लाख रोने गिड़गिड़ाने के बाद भी पुलिस वाला लोहे का सूजा भोंक कर कहता होगा – अरे ये हरामी हैं साले…
इस सूजे की भौंक को कलेजे में महसूस करता हुआ रिक्शे वाला भारत के उस जनतंत्र से उम्मीद लगाए बैठा है जहाँ हजारों करोड़ लूट लेने वालों को कहा जाता है कि – अरे ये नेताजी हैं यार! और दो रुपए अधिक ले लेने पर वाच्य परिवर्तन हो जाता है कि- अरे ये हरामी हैं साले!
riksaरोज देखता होगा यह रिक्शे वाला कि किसी बत्ती लगी गाड़ी को यही वर्दी कैसे एड़ियां जोड़ कर गर्मागर्म सलामी देती हैं और वो जनत्रांतिक बत्तियाँ ‘मोटर वाहन अधिनियम’ को रौंदते हुए आगे निकल जाती हैं… जनतंत्र से भी आगे।
एक सवाल पुराने खांसी के कफ की तरह गले में आकर अटक जाता होगा कि किस आर0 टी0 ओ0 ने यह कहा है कि पहिया पंचर कर देना। किस अधिनियम की किस धारा में लिखा है कि एक ट्रैफिक पुलिस चाहे तो किसी रिक्शे वाले के टायर में लोहे का सूजा घोंप दे। लेकिन कभी यह सवाल गर्दन से बाहर नहीं आता। आजादी के सत्तर साल बाद भी आदमी आदमी को ढ़ो रहा है जनतंत्र की तरह यही कम है?
अब रिक्शे के पहिए की गति रुक गई है। रिक्शे वाले के मुँह पर जैसे शांति छा गई है करुणा और दुख के कफन के लिपटा वह अपने गुस्से को किसी पर नहीं निकालता।एकदम शांत हो गया है बुद्ध की तरह। यह रिक्शे वाला बुद्ध नहीं है लेकिन बुद्ध का प्रतिनिधि जरुर है। इस रिक्शे वाले के एक दिन की मजबूरियाँ, चंद नोटों में लिपटीं हजारों संभ्रांतों की गालियाँ, कुंए जैसा पेट और बिना किसी भविष्य की जिंदगी एक घंटे भी खुद पर महसूस करके, अगर आप अपने से नीचे वाले लोगों से प्यार और समानता का व्यवहार कर सकें, तो आप बुद्ध तक पहुंच सकते हैं।किसी भी धर्म शास्त्र का कोई भी श्लोक करुणा और सहानुभूति से पवित्र नहीं। किसी भी रंग में वह शांति नहीं जो आपको किसी बेबस और गरीब के कंधे सहला कर मिलेगी।क्योंकि बुद्ध राजमहलों में नहीं झोपड़ी में रहते हैं और उनके प्रतिनिधि लालबत्तियों में नहीं अभाव में ही मिलेंगे।