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बुआ और बबुआ के आने वाले हैं बुरे दिन

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अब बुआजी और भतीजे के बुरे दिन आ रहे हैं। काशीराम की बदौलत चरम राजसुख भोग चुकी मायावती का दलितों से जमीनी सरोकार पहले भी नहीं रहा है। अपने भाई आनंद कुमार को नवकुबेर बना देने के बाद अब वह उसे बचाने के लिये बहुत आकुल दिखाई पड़ रही हैं। चीनी मिलों की बिक्री घोटाले की जांच से खुद को बचाने की चिंता अलग से। उनके इस राजनीतिक दुर्दिन में रही सही कसर किसी दलित को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाकर पूरी करने की तैयारी में है। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के अध्यक्ष और मोदी सरकार में मंत्री रामदास अठावले अपनी पार्टी को उत्तर प्रदेश में बसपा का विकल्प बनाने का इरादा जता चुके हैं।

दूसरी ओर, सपा का तो और बुरा हाल है। दुर्दिन में सांप और नेवला एक ही पेड की शाखा पर अगल बगल पडे रहते हैं। इन्हें अपनी जान बचाने की चिंता रहती है। लेकिन, इस चुनाव में जबरदस्त शिकस्त होने के बावजूद, सपाई दिग्गजों की आपसी जंग बढती ही जा रही है। अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव म्यान के अंदर अपनी तलवार रखने का तैयार ही नहीं हो रहे है। लगता है कि सत्तासुख की मादकता और उसकी लिप्सा सपा को इतिहास बना कर ही छोडेगी।

ऐसे में योगी इन दोनों ही पार्टियों के लिये ‘कालभैरव‘ से बनते नजर आ रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू की गयी उनकी मुहिम बुआजी और उनके बउआ की सियासी तकदीर बदल देने पर ही आमादा है। उत्तर प्रदेश में जो काम इन तीन सालों में खुद पी.एम. नरेंद्र मोदी तक नहीं कर सके हैं, उसे सी.एम.योगी कर दिखाने की कोशिश में हैं। अपनी इस मुहिम में उनके कामयाब हो जाने पर आंबेदकर और लोहिया के नाम पर रंगेसियार बने लोगों का असली चेहरा सामने आ जायेगा। इसमें मायावती सरकार में 21 चीनी मिलों को बेचने में हुए घोटाला गाज की तरह गिर सकता है। इसकी जांच की आंच से अखिलेश भइया का भी बचना मुश्किल होगा। इस घोटाले में अपनी बुआजी को बचाने में अखिलेश यादव की अहं भूमिका पर उठाये जा रहे हैं सवाल।

नतीजतन, सूबे के आम आदमी को लग सकता है कि पिछले विधान सभाई चुनाव के दौरान इनकी बहुप्रचारित पारदर्शी और निष्कलंक छवि उसके लिये भयंकर छलना साबित हुई है। उसे यह भी लग सकता है कि इसी भुलावे में आकर उसने सूबे के नये मुख्य मंत्री के रूप में अखिलेश का बडी भूल की थी।

इतना करने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि गद्दीनसीन होने के बाद अखिलेश यादव अपने चुनावी वायदे के मुताबिक मायावती सरकार में हुए भ्रष्टाचारों की जांच कराकर दोषियों को सजा दिलाने की कोशिश करेंगे। लेकिन, एक भी घोटाले में ऐसा कुछ भी न होने से सूबे का आम आदमी भी अब यह सवाल उठा रहा है कि क्या एक चोर दूसरे का मौसरा भाई नहीं हो सकता है? यदि ऐसा नहीं है तो निवर्तमान मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने मायावती सरकार में हुए पार्कों और मूर्तियों के निर्माण में अरबो रु के हुए कथित घोटालों को ठंडे बस्ते में क्यों डाल दिया? इसका माकूल जवाब अखिलेश यादव से अच्छा और कौन दे सकता है? ऐसे में इस आरोप में इस आरोप का उछलना स्वाभाविक ही है कि 21 चीनी मिलों की बिक्री के मामले में किये गये 11 हजार करोड रु से भी अधिक के कथित घोटाले पर भतीजे ने अपनी बुआजी के कारनामों पर पर्दा डालने की भरसक कोशिश क्यों की हैं?

बताया जाता है कि बेची गयी इन चीनी मिलों में से 10 चीनी मिलें चालू और अच्छे हालत में थीं। ये घाटे की बजाय फायदे में चल रही थीं। यही वजह है कि 30 मई, 2015 को भेजी गयी सी.ए.जी. की रिपोर्ट में कहा गया है कि इन चीनी मिलों को बेचने से सरकार को 1179.84 करोड रु से भी अधिक राजस्व का नुकसान हुआ है। इस रिपोर्ट के अनुसार, बिडिंग प्रक्रिया शुरू होने के पहले ही यह तय कर लिया गया था कि इन चीनी मिलों को बेचना है।

बिडर्स को वित्तीय बिड भी पहले ही बता दी गयी थी। फिर भी काम नहीं बना, तो बिडिंग के बीच में ही प्रक्रिया बदल दी गयी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विनिवेश, परामर्शी मूल्यांकन और कंसंल्टेंसी मानीटरिंग के नाम पर बनाई गयी आईएएस अधिकारियों की कमेटियों ने भी इसमें दलालों की तरह भूमिका निभाई है। 11 चीनी मिलों की बिक्री में महज एक ही बोली मिली थी। यह सरासर गलत है। रिपोर्ट में ऐसी ही दूसरी और कोशिशों का भी उल्लेख किया गया है।

बताया जाता है कि इन चीनी मिलों को गुरुदीप सिंह उर्फ पोंटी ने खरीदा था। इनका निधन हो गया है। इनका सपा नेता मुलायम सिंह यादव से भी बहुत करीबी संबंध रहा है। इसलिये दोनों ही सरकारों में इनका सिक्का चलता रहा। मायावती के भाई आनंद कुमार को इन्होंने अपना बिजनेस पार्टनर बना रखा था। अपने भाई पर मायावती की ममता इस हद तक अंधी रही है कि उन्होंने सूबे के 22 करोड लोगों के हितों की बडी बेरहम उपेक्षा कर दी थी। इसी के चलते लगभग 95 करोड रु की रही बाराबंकी जिले की बंकी चीनी मिल को सिर्फ और सिर्फ चार करोड रु में ही बेंच दिया गया।

सी.ए.जी. की यह रिपोर्ट फरवरी 2012 को विधान सभा में पेश की गयी थी। इस रिपोर्ट पर विधान सभा की पी.यू.सी. (पब्लिक अंडरटेकिंग कमेटी) को पहले यह तो स्वीकार करना होता है कि सीएजी की रिपोर्ट में जिन तथ्यों का खुलासा हुआ है, उनके आधार पर वाकई यह घोटाला हुआ है या नहीं? इस तरह पीयूसी को सबसे पहले सीएजी की रिपोर्ट को या तो स्वीकार करना चाहिये अथवा या उसे खारिज कर देना। उसकी रिपोर्ट सदन में रखे जाने के बाद सरकार इस रिपोर्ट को अपनी टिप्पणी के साथ पीयूसी के पास भेजती है। इसके बाद पीयूसी इस मामले में संबंधित सभी पक्षों को तलब कर सुनवाई करती है। इस सुनवाई के बाद पीयूसी को यह तय करना होगा कि 11.85 करोड रु घोटाले की रिपोर्ट स्वीकार करने के योग्य है या नहीं?

लेकिन, अखिलेश सरकार ने इसकी नौबत ही नहीं आने दी। लगता है इसीलिये उसने इस रिपोर्ट के सदन में रखे जाने के बाद पीयूसी में अपना कोई जवाब ही नहीं दाखिल किया। इसकी बजाय उसने इस मामले की जांच सीधे तत्कालीन लोकायुक्त मेहरोत्रा को सौंप दी। इस बारीक चाल के कारण इस मामले की जांच अभी भी लंबित है।

इस संबंध में अभी तक कोई फैसला न किये जाने की वजह पूछे जाने पर तत्कालीन लोकायुक्त मेहरोत्रा का कहना है कि इसमें एक संवैधानिक प्रक्रिया आडे आ रही है। सीएजी की रिपोर्ट विधान सभा में पेश किये जाने के बाद प्रदेश सरकार को इस रिपोर्ट को अपनी टिप्पणी के साथ विधान सभा की पीयूसी को संदर्भित करना होता है। उसके बाद पीयूसी पूरे मामले से जुडे सभी पक्षों को तलब कर सुनवाई करते हुए यह तय करती है कि सीएजी की रिपोर्ट वस्तुतः स्वीकार करने के योग्य है कि नहीं। यह प्रक्रिया अभी भी लंबित है। इसलिये जांच भी लंबित है। तत्कालीन लोकायुक्त मेहरोत्रा और निवर्तमान मुख्य मंत्री अखिलेश यादव के आपसी रिश्ते कैसे रहे हैं? यह जगजाहिर रहा है।

दूसरी ओर, सीएजी की जांच रिपोर्ट के बारे में सरकार की यह दलील रही है कि चीनी मिलों के विनिवेश का हर चरण मंत्रीपरिषद से अनुमोदित है और मंत्रीपरिषद के फैसले सीएजी के आडिट दायरे से बाहर है। लेकिन, इस दलील पर पलटवार करने हुए सीएजी के जिम्मेदार सूत्रों का यह कहना रहा है कि राज्यसरकार के 25 अप्रैल 2003 की अधिसूचना के तहत पूरी विनिवेश प्रक्रिया की लेखा परीक्षा का अधिकार उसे मिला हुआ है।

जानकार सूत्रों का मानना है कि मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ के इन चीनों मिलों के बेंचे जाने की जांच का आदेश देने के बाद अब ऐसे सारे अवरोध हटाये जा सकते हैं। इससे इसकी प्रक्रिया में तेजी आयेगी और यह जांच जल्दी ही आसान बन जायेगी। हांलाकि, कहा जाता है कि पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले की जांच कराने की औपचारिता का निर्वाह तो किया था। लेकिन, उसे सिर्फ औपचारिक ही कहा जा सकता है। इसीलिये इस जांच में किसी पर  भी आंच नहीं आ सकी है। इसीलिये चैन की वंशी बजा रहे आरोपियों के चेहरे पर शिकन साफ नजर आ रही है।