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अखिलेश-मायावती के भ्रष्टाचार और उनके भ्रष्ट अधिकारियों पर सीएम योगी का चाबुक चलना तय

लखनऊ। आपको याद होगा कि प्रदेश के इस विधान सभाई चुनाव के दौरान निवर्तमान मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने प्रायः अपनी हर चुनावी सभा में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को ललकारते हुए उनकी सरकार के काम पर सवाल उठाते रहे हैं। वह जानना चाहते थे कि मोदी की सरकार ने इन तीन सालों  में किया गया अपना कोई काम तो बतायें। इसके पीछे उनकी सियासी मंशा सूबे के आम आदमी को यह जताने की रही है कि मोदी सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है। काम तो उनकी सरकार ने ही किया है। इसके जवाब में प्रधान मंत्री मोदी ने सिर्फ इतना ही जरूरी समझा था कि अखिलेश सरकार ने तो कारनामें किये हैं। लेकिन, पिछले पांच सालों से अखिलेश सरकार को भोगते चले आ रहे सूबे के आम आदमी ने सही समय पर सही जगह ठप्पा लगाकर यह बता दिया है कि इन दोनों में से किसने काम किया है और किसने कारनामे।

अब योगी आदित्य नाथ की सरकार ने जनता के इसी फैसले को सही साबित करने की कोशिश शुरू कर दी है। कल ही योगी ने हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से अखिलेश सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट ‘गोमती रीवर फ्रंट प्रोजेक्ट‘ में किये गये कथित भयंकर घोटाले की जांच के आदेश दे दिया है। इसकी जांच रिपोर्ट 45 दिनों में ही सरकार को मिल जायेगी।

यह पहला मौका है जब योगी ने अखिलेश सरकार के किसी प्रोजेक्ट की जांच का आदेश दिया है। ऐसे ही दूसरे और तमाम कथित घोटालों की की भी जांच कराये जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इनकी जांच रिपोर्टों के सामने आ जाने के बाद ही इस बात का खुलासा हो सकेगा कि अखिलेश सरकार के और कौन कौन से कारनामें रहे हैं।

इस मामले की जांच का आदेश सिर्फ इसलिये दिया जा सका है कि पिछले 27 मार्च को मुख्य मंत्री ने खुद मौके पर जाकर इस परियोजना की असलियत खुद अपनी आंखों से देख आये हैं। सारी असलियत खुद अपनी आँखों से ही देख आये हैं। इसलिये उन्हें कोई गुमराह नहीं कर सकता है। न नौकरशाह, न विपक्षी नेता और न खुद भाजपा के ‘धुरंधर खिलाडी‘ नेता ही। गोमती तट पर जाकर योगी को यह समझने में देर नहीं लगी कि इस प्रोजेक्ट में बहुत बडा खेल किया गया है। वह जानना चाहते थे कि इस परियोजना को पूरी करने में देर क्यों हुई है? इसका पैसा कहां खर्च किया गया है? लेकिन, वहां मौजूद नौकरशाहों और इंजीनियरों में कोई भी इसी तरह के उनके इन दूसरे सवालों का भी जवाब नहीं दे सका कि गोमती के किनारे कितनी मिट्टी किस दर से गिरवाई गयी थी?

पर्यावरण विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र न लेने के बावजूद यह काम क्यों चलता रहा? इस परियोजना का कोई भी काम डी.पी.आर. के तहत क्यों नहीं कराया गया? इसकी शुरुआत में ही यह बात क्यों नहीं साफ नहीं हो सकी थी कि इस परियोजना में क्या क्या किया जाना है? ऐसे अनेक सवालों पर नौकरशाह लाजवाब रहे। वे सिर्फ यह कहने का ही साहस कर सके कि इस परियोजना की पुनरीक्षित लागत  2448 करोड रु हो गयी है। बताया जाता है कि इस पर योगी ने सिर्फ इतना ही कहा कि इस परियोजना में गैरजरूरी कामों को तत्काल हटाया जाय। गोमती अत्यधिक प्रदूषित हो चुकी है। अच्छा तो यह होता कि इसे पहले प्रदूषण से मुक्त किया जाता। इसके बिना गोमती के सुंदरीकरण का कोई अर्थ ही नहीं है। उन्होंने गंदे और बदबूदार पानी से ही चलाये जा रहे फौव्वारा के लगाये जाने पर अपनी गहरी नाराजगी जताई।

प्रारंभ में इस परियोजना के लिये 1513 करोड रु ही स्वीकृत, किये गये थे। इसमें से 1435 करोड रु यानी 95 प्रतिशत रकम खर्च की जा चुकी है। इसके बावजूद, इसका 60 प्रतिशत काम भी पूरा नहीं हुआ है। इंजीनियरों के खर्च बढाते जाने से इसका खर्च भी लगातार बढता ही गया। अब सिंचाई विभाग की दलील है कि इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिेये 2448.42 करोड रु की जरूरत है।

गोमती नदी के सुंदरीकरण योजना में एक काम गोमती बैराज के नीचे अंडरपास बनाने का भी था। सरकार के बेहद चहेते कहे जाने वाले तत्कालीन अधीक्षण अभियंता रूप सिंह यादव ने करोडों रु के यह काम कम अनुभवी अपने किसी चहेते ठेकेदार को दे दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि यह अंडरपास तो आज तक नहीं बन सका है। लेकिन, ऊपर से बैराजरोड जरूर ढह गयी। इसलिये पिछले चार महीने से गोमती बैराज रोड ही बंद पडी है। इतना ही नहीं, करोडों रु की लागत से बना सिंचाई विभाग का वातानुकूलित कार्यालय भी ढह गया है।

बताया जाता है कि अखिलेश सरकार के इस कारनामे को सुनकर मुख्य मंत्री लगातार कई दिनों तक बहुत उद्वेलित रहे हैं। वह जनता की गाढी कमाई के पैसे के इस तरह के चरम दुरुपयोग बर्दाश्त नहीं कर सके। इसीलिये शनिवार अवकाश का दिन होने के बावजूद वह अपने कार्यालय गये और उन्होंने इस मामले की हाइकोर्ट के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश से जांच कराने का आदेश दिया। इसकी जांच रिपोर्ट भी उन्हें सिर्फ 15 दिनों के अंदर ही मिल जानी चाहिये।

जानकार सूत्रों के अनुसार, जांच रिपोर्ट आने से कई वरिष्ठ नौकरशाह जवाबदेह हो सकते है। इनमें प्रमुख सचिव सिंचाई से मुख्य सचिव बना दिये गये दीपक सिंघल, पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन, वर्तमान मुख्य सचिव राहुल भटनागर, संजीव सरन प्रमुख सचिव पर्यावरण, सुरेश चंद्रा प्रमुख सचिव सिंचाई, सी.डी.राम पूर्व विभागाध्यक्ष सिंचाई, प्रदीप कुमार सिंह विभागाध्यक्ष सिंचाई, रूप सिेंह यादव पूर्व प्रोजेक्ट मैनेजर रिवरफ्रंट तथा सिंचाई, नगर निगम, लखनऊ विकास प्राधिकरण सहित अन्य कई विभागों के अधिकारी भी हैं।

बहरहाल, यह तो अखिलेश सरकार के कारनामों की सिर्फ एक ही बानगी है। अब पेश है है उनकी सरकार के ऐसे ही कुछ दूसरे कारनामों की भी एक झलक। हालत यह है कि अब तो निवर्तमान मुख्य मंत्री अखिलेश यादव के ड्रीम प्रोजेक्ट रहे जनेश्वर मिश्र पार्क, चक गंजरिया सिटी, जे.पी.एन.आई.सी. हुसैनाबाद हेरिटेज जोन आदि को भी लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं। मसलन, 376 एकड में फैले जनेश्वर मिश्र पार्क का प्रोजेक्ट अभी तक चार सौ करोड रु का रहा है। वित्तलेखा मैनुअल-2014 के अनुसार 25 लाख रु से अधिक के काम के लिये ई-टेंडर होना चाहिये। इसके विपरीत, करोडों रु के काम मैनुअल टेंडर से ही कराये गये हैं।

इसी तरह हाईटेक टाउनशिप के तौर पर 807 एकड भूमि में बनाये जा रहे चकगजरियां सिटी का नोडल एलडीए.यानी लखनऊ विकास प्राधिकरण है। इस प्रोजेक्ट का लगभग 60 प्रतिशत काम हो गया है। प्रोजेक्ट 1548 करोड का है। प्रदेश सरकार के आदेश के बाद भी एल.डी.ए. ने मैट्रो को 150 एकड भूमि नहीं दी है। इसके बजाय, उसने लेआउट बदल कर मेट्रो जमीन पर बिल्डरों के लिये प्लाट निकाल लिये हैं। ऐसे ही दूसरे और कई काम।

2006 में जे.पी.एन.आई.सी. की शुरुआती लागत 189 करोड रु थी। इस परियोजना को 31 मार्च तक पूरा हो जाना था। लेकिन, अभी तक सिर्फ म्यूजियम ही तैयार हो सका है। इसी तरह अखिलेश सरकार ने 2013 में हुसैनाबाद हेरिटेज प्रोजेक्ट बनाया था। इस योजना के शुरुआती दौर में 68 करोड रु की लागत से पांच काम करवाये जाने थे। बाद में इस प्रोजेक्ट की लागत बढाकर लगभग 205 करोड रु कर दी गयी। इसका काम अभी तक अधूरा ही पडा हुआ है।

ऐसे ही कारनामों के कारण वजीरेआला रहे अखिलेश यादव का नाम पूरे देश में फैल गया था। नतीजतन, उनकी सरकार के बहुत जोर दिेये जाने के बाद भी जाने माने उद्योगपतियों की हिम्मत प्रद्रेश में पूंजी निवेश करने की नहीं हुई। इसके लिये आगरा, दिल्ली और मुंबई में मेला लगाकर पानी की तरह पैसा फूंक दिया गया। लेकिन, अधिकांश उद्योगपति इससे बेअसर रहे। इसलिये बमुश्किल 27374.50 करोड रु का ही पूंजीनिवेश किया जा सका था। इनसे तो कहीं बेहतर स्थिति इनकी बुआजी की सरकार की रही है। उनकी सरकार में 32492.85 करोड रु का पूंजीनिवेश किया गया था।

अंत में सात सौ करोड रु के चर्चित पंजीरी घोटाले में लीपापोती के लिये किये जा रहे प्रयासों की भी एक झलक। कई नौकरशाह इस मामले में घोटालेबाजों को बचा रहे हैं। इस घोटाले की जांच में अभी तक सिर्फ खानापूरी ही की गयी है। करोडों रु की धनराशि को ठिकाने लगाया जा रहा है।

इस प्र्रकरण में भ्रष्ट नौकरशाहों ने वित्त वर्ष 2016-17 में बिना टेंडर के ही दस चहेती फर्मों से हर महीने 58 करोड रु की पंजीरी की आपूर्ति करायी थी। 14 अपै्रल 2016 को पुराने टेंडर की अवधि समाप्त हो गयी थी। इसके बाद उन्हीं फर्मों को तीन तीन महीने का ठेका दे दिया गया। आचार संहिता लागू होने के बाद भी चुनाव आयोग को अंधेरे में रखकर उन्हीं दस फर्मों के नाम फिर से टेंडर कर दिये गये। इस पर न्याय विभाग ने आपत्तियां दर्ज करायी, तो उसे भी दरकिनार कर यह काम कर दिया गया। इसके लिये सारे नियम और कानूनों को ताक पर रखकर चहेती फर्मों का 312 करोड रु का भुगतान भी कर दिया गया। बताया जाता है कि इस घोटाले में फंसे अधिकारियों को बचाने के लिये भाजपा के ही कुछ असरदार नेता लगे हुए हैं। इनका दावा है कि शासन से लेकर सरकार तक सभी को रास्ते पर ले आया जायेगा।