Breaking News

अखिलेश के मैनिफेस्टों से गायब हो गए मुसलमान………………

समाजवादी पार्टी के नए सर्वेसर्वा अखिलेश यादव ने रविवार को जब पार्टी का घोषणा पत्र जारी किया तो दो कमियों की ओर सबका ध्यान गया. पहली, मंच पर मुलायम सिंह यादव की और दूसरी, मैनिफेस्टो में मुस्लिमों के मुद्दों की. क्या ये महज इत्तेफाक था या मुलायम युग से अखिलेश युग वाली सपा का स्वाभाविक चेहरा? जानकार इसे अखिलेश यादव का सियासी दांव मान रहे हैं जिसके सफल या विफल रहने का सीधा असर अखिलेश के सियासी भविष्य पर पड़ने वाला है.

2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने मुस्लिमों को 18 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था. चुनाव में सपा को मुस्लिमों के मिले एकमुश्त वोटों के पीछे ये ऐलान अहम वजह बताया गया था क्योंकि उन चुनावों में तकरीबन 45 फीसदी मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को मिले थे. आम चुनाव 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में भी समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को पुलिस और पीएसी में 15 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा किया था, हालांकि 2014 के चुनाव में मुलायम को मुस्लिम वोट तो मिले लेकिन सीटें महज चार मिलीं.

2014 की करारी हार से लिया है सबक
2014 के बाद हार की समीक्षा के लिए आयोजित बैठक में ये बात उठी थी कि पार्टी ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के कार्यक्रम इतने जोर-शोर से प्रसारित किए कि प्रतिरोध में यादव भी ‘हिंदू’ हो गया और बीजेपी को वोट दे बैठा. माना जा रहा है कि अखिलेश ने यही बात ध्यान में रख अलग से मुस्लिमों के लिए किसी कल्याणकारी योजना का वायदा मंच से नहीं किया. उन्होंने महिलाओं, छात्रों, युवाओं, गरीबों, किसानों कारोबारियों हर तबके के बारे में बात की लेकिन अल्पसंख्यक वर्ग जो हमेशा से सपा के घोषणापत्र का अहम हिस्सा रहा है, वो इस बार नदारद था. पिछली बार की तरह इस बार के घोषणापत्र में न तो मुस्लिम आरक्षण की बात थी, न आतंक के आरोप में पकड़े गए बेकसूर मुस्लिम युवकों की रिहाई का ही कोई वायदा था. उर्दू तालीम या मदरसों को लेकर भी कोई बड़ा वायदा अखिलेश की ओर से नहीं किया गया.

‘मौलाना’ मुलायम वाली छवि नहीं चाहते अखिलेश
अखिलेश के इस घोषणा पत्र के बाद मुस्लिम नौजवानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे संगठन रिहाई मंच ने उनपर मुस्लिमों के मुद्दों से पीछे हटने का आरोप लगाया, हालांकि सियासी जानकार इसे अखिलेश की दूरदृष्टि वाला फैसला मान रहे हैं. अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव मुस्लिम हितों की राजनीति करते रहे हैं. मुस्लिमों का उन्हें भरपूर सहयोग भी मिला है. एक समय उनके कट्टर विरोधी उन्हें ‘मौलाना’ मुलायम तक कहने लगे थे. माना जा रहा है कि अखिलेश अपने पिता की इसी छवि से खुद को बाहर निकालना चाहते हैं. उन्होंने महिलाओं, बच्चों, गरीबों, कुपोषितों को लिए जो लोकलुभावन ऐलान किए हैं, वो हर तबके की तरह मुस्लिम तबके को भी फायदा पहुंचाएंगे लेकिन उनपर तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप विरोधी नहीं लगा सकेंगे.

यूपी से बाहर सपा के विस्तार का एजेंडा
अखिलेश के इस कदम के पीछे एक कारण यूपी के बाहर सपा के विस्तार की उनकी योजना से जुड़ा भी हो सकता है. मुलायम हों या लालू प्रसाद यादव दोनों नेताओं को उनके प्रदेश क्रमशः यूपी और बिहार में मुस्लिम वोटों के चलते भरपूर कामयाबी मिली लेकिन अपनी मुस्लिम परस्त छवि के चलते ही वे अपने प्रदेश के बाहर लोकप्रिय नहीं हो सके और उनकी पार्टियों का वजूद उनके प्रदेश तक ही सीमित रहा. अखिलेश ने जिस तरह विकास को एजेंडा बनाया है और हर वर्ग को उस एजेंडे में शामिल किया है उसे यदि यूपी में सफलता मिलती है तो वे दूसरे हिंदी भाषी प्रदेशों में इसी एजेंडे के बल पर समाजवादी पार्टी को एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित कर सकते हैं.

मुस्लिम वोट बिदके तो होगा नुकसान
अखिलेश के इस फैसले के पीछे एक बड़ी रिस्क भी है. यूपी का विधानसभा चुनाव इस बार त्रिकोणीय है. महज कुछ प्रतिशत वोटों के इधर से उधर हो जाने से पार्टियों के हाथ से सत्ता इधर की उधर हो सकती है. बसपा और सपा के लिए जीत या हार का निर्णय उनके परंपरागत जाटव-यादव वोटों के अलावा मुस्लिम वोटों को ही करना है. मायावती लगातार मुस्लिम समुदाय को ये संदेश दे रही हैं कि उनके हितों की रक्षा केवल बसपा कर सकती है. उन्होंने बड़ी संख्या में मुस्लिमों को टिकट बांटे हैं. पार्टी में मचे घमासान के वक्त खुद मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ा था. अगर मुस्लिम वोटर इसे लेकर सपा से नाराज हुआ और बसपा के पाले में चला गया तो अपने पहले ही सियासी मोर्चे पर अखिलेश को करारी शिकस्त झेलनी पड़ सकती है.